-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------
माता-पिता की छाया में ही जीवन सँवरता है। माता-पिता, जो निःस्वार्थ भावना की मूर्ति हैं, वे संतान को ममता, त्याग, परोपकार, स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं।माता और पिता इन दो स्तंभों पर भारतीय संस्कृति मजबूती से स्थिर है। माता-पिता भारतीय संस्कृति के दो ध्रुव हैं। माँ शब्द ही इस जगत का सबसे सुंदर शब्द है। इसमें क्या नहीं है? वात्सल्य, माया, अपनापन, स्नेह, आकाश के समान विशाल मन, सागर समान अंतःकरण, इन सबका संगम ही है माँ। न जाने कितने कवियों, साहित्यकारों ने माँ के लिए न जाने कितना लिखा होगा। लेकिन माँ के मन की विशालता, अंतःकरण की करुणा मापना आसान नहीं है।परमेश्वर की निश्छल भक्ति का अर्थ ही माँ है। ईश्वर का रूप कैसा है, यह माँ का रूप देखकर जाना जा सकता है। ईश्वर के असंख्य रूप माँ की आँखों में झलकते हैं। संतान अगर माँ की आँखों के तारे होते हैं, तो माँ भी उनकी प्रेरणा रहती है। कुपुत्र अनेक जन्मते हैं, पर कुमाता मिलना मुश्किल है। वेद वाक्य के अनुसार प्रथम नमस्कार माँ को करना चाहिए। सारे जग की सर्वसंपन्न, सर्वमांगल्य, सारी शुचिता फीकी पड़ जाती है माँ की महत्ता के सामने। सारे संसार का प्रेम माँ रूपी शब्द में व्यक्त कर सकते हैं। जन्मजात दृष्टिहीन संतान को भी माँ उतनी ही ममता से बड़ा करती है। दृष्टिहीन संतान अपनी दृष्टिहीनता से ज्यादा इस बात पर अपनी दुर्दशा व्यक्त करता है कि उसका लालन-पोषण करने वाली माँ कैसी है, वह देख नहीं सकता, व्यक्त कर नहीं सकता। माँ को देखने के लिए भी दृष्टि चाहिए होती है। आँखें होते हुए भी माँ को न देख सकने वाले बहुतायत में होते हैं। ईश्वर का दिव्य स्वरूप एक बार देख सकते हैं, मगर माँ के विशाल मन की थाह लेने के लिए बड़ी दिव्य दृष्टि लगती है। माँ यानी ईश्वर द्वारा मानव को दिया हुआ अनमोल उपहार। दूसरा नमस्कार यानी पितृदेव। पिता सही अर्थों में भाग्य-विधाता रहता है। जीवन को योग्य दिशा दिखलाने वाला महत्वपूर्ण कार्य वह सतत करता है। विशेषता यह कि पिता पर कविताएँ कम ही लिखी गईं। कारण कुछ भी रहे हों, मगर कविता की चौखट में पितृकर्तव्य अधूरे ही रहे। कभी गंभीर, कभी हँसमुख, मन ही मन स्थिति को समझकर पारिवारिक संकटों से जूझने वाले पिता क्या और कितना सहन करते होंगे, इसकी कल्पना करना आसान नहीं है। माता-पिता व संतान का नाता पवित्र है। माता-पिता को ही प्रथम गुरु समझा जाता है। माता-पिता ही जीवन का मार्ग दिखलाते हैं। माता-पिता के अनंत उपकार संतान पर रहते हैं। जग में सब कुछ दोबारा मिल जाता है, लेकिन माता-पिता नहीं मिलते। आज आधुनिक युग का जो चित्र दिखाई दे रहा है, उसमें इस महान पवित्र संबंध की अवहेलना होती दिखाई दे रही है। कहते हैं व्यक्ति जिंदा रहता है, तब तक उसको महत्वहीन समझा जाता है, उसके जाने के पश्चात ही उसका मूल्य समझ में आता है।कालचक्र घूम रहा है, फिर भी माता-पिता का संबंध अभंग है। संतान के लिए उनके ऋण कभी पूरे नहीं होते। अतः संतान को उनकी मनोभाव से सेवा करनी चाहिए। आज आधुनिकता के अंधे प्रवाह में बहकर माता-पिता को बोझ माना जाने लगा है। यहाँ तक आदेशित किया जाने लगा है कि साथ-साथ रहना है तो सब धन, संपत्ति उनके (संतान)नाम कर दें या फिर अलग रहें। वृद्धाश्रम या इसी प्रकार की दूसरी व्यवस्था का क्या अर्थ है? वह भी एक जमाना था, जब श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने अपने अंधे माता-पिता की सेवा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। आधुनिक श्रवण कुमार आधुनिकता के आकर्षण में धन कमाने की अंधीदौड़ में वृद्ध माता-पिता को जीवन के अंतिम दौर में अकेले रहने को विवश कर रहे हैं। माता-पिता की छाया में ही जीवन सँवरता है। माता-पिता, जो निःस्वार्थ भावना की मूर्ति हैं, वे संतान को ममता, त्याग, परोपकार, स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं। माता-पिता की सेवा और उनकी आज्ञा पालन से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। पिता-पुत्र संबंधों का सबसे उदात्त स्वरूप राम और दशरथ के उदाहरण से मिलता है। पिता की आज्ञा को सर्वोच्च कर्तव्य मानना और उसके लिए स्वयं के हित और सुख का बलिदान कर देना राम के गुणों में सबसे बड़ा गुण माना जाता है और इस आदर्श ने करोड़ों भारतीयों को इस मर्यादा के पालन की प्रेरणा दी है।
No comments:
Post a Comment