मै रोया प्रदेश में, भीगा माँ का प्यार !
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार !!

Friday, February 22, 2008

माँ भावना की मूर्ति है !

-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------
माता-पिता की छाया में ही जीवन सँवरता है। माता-पिता, जो निःस्वार्थ भावना की मूर्ति हैं, वे संतान को ममता, त्याग, परोपकार, स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं।माता और पिता इन दो स्तंभों पर भारतीय संस्कृति मजबूती से स्थिर है। माता-पिता भारतीय संस्कृति के दो ध्रुव हैं। माँ शब्द ही इस जगत का सबसे सुंदर शब्द है। इसमें क्या नहीं है? वात्सल्य, माया, अपनापन, स्नेह, आकाश के समान विशाल मन, सागर समान अंतःकरण, इन सबका संगम ही है माँ। न जाने कितने कवियों, साहित्यकारों ने माँ के लिए न जाने कितना लिखा होगा। लेकिन माँ के मन की विशालता, अंतःकरण की करुणा मापना आसान नहीं है।परमेश्वर की निश्छल भक्ति का अर्थ ही माँ है। ईश्वर का रूप कैसा है, यह माँ का रूप देखकर जाना जा सकता है। ईश्वर के असंख्य रूप माँ की आँखों में झलकते हैं। संतान अगर माँ की आँखों के तारे होते हैं, तो माँ भी उनकी प्रेरणा रहती है। कुपुत्र अनेक जन्मते हैं, पर कुमाता मिलना मुश्किल है। वेद वाक्य के अनुसार प्रथम नमस्कार माँ को करना चाहिए। सारे जग की सर्वसंपन्न, सर्वमांगल्य, सारी शुचिता फीकी पड़ जाती है माँ की महत्ता के सामने। सारे संसार का प्रेम माँ रूपी शब्द में व्यक्त कर सकते हैं। जन्मजात दृष्टिहीन संतान को भी माँ उतनी ही ममता से बड़ा करती है। दृष्टिहीन संतान अपनी दृष्टिहीनता से ज्यादा इस बात पर अपनी दुर्दशा व्यक्त करता है कि उसका लालन-पोषण करने वाली माँ कैसी है, वह देख नहीं सकता, व्यक्त कर नहीं सकता। माँ को देखने के लिए भी दृष्टि चाहिए होती है। आँखें होते हुए भी माँ को न देख सकने वाले बहुतायत में होते हैं। ईश्वर का दिव्य स्वरूप एक बार देख सकते हैं, मगर माँ के विशाल मन की थाह लेने के लिए बड़ी दिव्य दृष्टि लगती है। माँ यानी ईश्वर द्वारा मानव को दिया हुआ अनमोल उपहार। दूसरा नमस्कार यानी पितृदेव। पिता सही अर्थों में भाग्य-विधाता रहता है। जीवन को योग्य दिशा दिखलाने वाला महत्वपूर्ण कार्य वह सतत करता है। विशेषता यह कि पिता पर कविताएँ कम ही लिखी गईं। कारण कुछ भी रहे हों, मगर कविता की चौखट में पितृकर्तव्य अधूरे ही रहे। कभी गंभीर, कभी हँसमुख, मन ही मन स्थिति को समझकर पारिवारिक संकटों से जूझने वाले पिता क्या और कितना सहन करते होंगे, इसकी कल्पना करना आसान नहीं है। माता-पिता व संतान का नाता पवित्र है। माता-पिता को ही प्रथम गुरु समझा जाता है। माता-पिता ही जीवन का मार्ग दिखलाते हैं। माता-पिता के अनंत उपकार संतान पर रहते हैं। जग में सब कुछ दोबारा मिल जाता है, लेकिन माता-पिता नहीं मिलते। आज आधुनिक युग का जो चित्र दिखाई दे रहा है, उसमें इस महान पवित्र संबंध की अवहेलना होती दिखाई दे रही है। कहते हैं व्यक्ति जिंदा रहता है, तब तक उसको महत्वहीन समझा जाता है, उसके जाने के पश्चात ही उसका मूल्य समझ में आता है।कालचक्र घूम रहा है, फिर भी माता-पिता का संबंध अभंग है। संतान के लिए उनके ऋण कभी पूरे नहीं होते। अतः संतान को उनकी मनोभाव से सेवा करनी चाहिए। आज आधुनिकता के अंधे प्रवाह में बहकर माता-पिता को बोझ माना जाने लगा है। यहाँ तक आदेशित किया जाने लगा है कि साथ-साथ रहना है तो सब धन, संपत्ति उनके (संतान)नाम कर दें या फिर अलग रहें। वृद्धाश्रम या इसी प्रकार की दूसरी व्यवस्था का क्या अर्थ है? वह भी एक जमाना था, जब श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने अपने अंधे माता-पिता की सेवा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। आधुनिक श्रवण कुमार आधुनिकता के आकर्षण में धन कमाने की अंधीदौड़ में वृद्ध माता-पिता को जीवन के अंतिम दौर में अकेले रहने को विवश कर रहे हैं। माता-पिता की छाया में ही जीवन सँवरता है। माता-पिता, जो निःस्वार्थ भावना की मूर्ति हैं, वे संतान को ममता, त्याग, परोपकार, स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं। माता-पिता की सेवा और उनकी आज्ञा पालन से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। पिता-पुत्र संबंधों का सबसे उदात्त स्वरूप राम और दशरथ के उदाहरण से मिलता है। पिता की आज्ञा को सर्वोच्च कर्तव्य मानना और उसके लिए स्वयं के हित और सुख का बलिदान कर देना राम के गुणों में सबसे बड़ा गुण माना जाता है और इस आदर्श ने करोड़ों भारतीयों को इस मर्यादा के पालन की प्रेरणा दी है।

जब से गई है माँ मेरी रोया नहीं

-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------


जब से गई है माँ मेरी रोया नहीं कवि कुलवंत सिंह
जब से गई है माँ मेरी रोया नहींबोझिल हैं पलकें फिर भी मैं सोया नहींऐसा नहीं आँखे मेरी नम हुई न होंआँचल नहीं था पास फिर रोया नहींसाया उठा अपनों का मेरे सर से जबसपनों की दुनिया में कभी खोया नहींचाहत है दुनिया में सभी कुछ पाने कीपायेगा तूँ वह कैसे जो बोया नहींइंसा है रखता साफ तन हर दिन नहाबीतें हैं बरसों मन कभी धोया नहीं

जन्म दे मुझे भी माँ

-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------

जन्म दे मुझे भी माँ : गुरवरन सिंह


जन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,मुझे अपनी कोख में न मारतेरे दर्शन करना चाहती हूँ माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,लड़की हूँ तो क्या हुआ माँ, ख्याल मैं भी तेरा रखूँगीपढ़-लिखकर मैं भी माँ, तेरा नाम चमकाऊँगीअगर तू कहे तो मैं तेरा राज-दुलारा बनकर दिखाऊँगीतेरी कोख में कर रही हूँ इंतज़ार माँ, इस संसार में मुझे भी ले आजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,लोग लड़कों के जन्म पर खुश होते हैं,तू मुझ लड़की को जन्म देकर खुशी मनासंसार को तू आज बता दे माँ कि –मैं हूँ लड़कों से बढ़कर तेरी लड़की माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,तेरी गोद में सोना चाहती हूँ, तेरी लोरियाँ सुनना चाहती हूँ माँप्यार की अनमोल परिभाषा मैं तुझ से सीखना चाहती हूँ माँदुनिया में मुझे माँ तू ही ला सकती हैमेरा तो भगवान है तू माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,तेरे जो सपने हैं, उनको मैं पूरा करूँगी माँ,जो तू कहे वो मैं करूँगी माँ,न मैं माँगूगी महँगे कपड़े,न माँगूगी कुछ औरमाँगूगी तो बहुत सारा तेरा प्यार, माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,मेरी शादी के खर्च से परेशान न हो माँ,मैं खूब मेहनत करूँगी और पैसा कमाऊँगीतुझ पर कभी बोझ नहीं बनूँगी माँ, दहेज की फिक्र न कर, मैं हूँ न तेरी बेटी माँक्योंकि लड़की है आज लड़कों के बराबर माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ
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माँ की वंदना

-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------

मानस मंथन – एक मार्मिक अभिव्यक्तिसमीक्षक : कपिल अनिरुद्धरचयिता : शशि पाधा

धरती माँ की वन्दना, राष्ट्र प्रेम एवं भारतीयता को ले कर बहुत ही उत्कृष्ट रचनायें की गई हैं परन्तु अपनी धरा से प्रेम करने वाला, राष्ट्र गौरव से ओत-प्रोत व्यक्ति यदि अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि से दूर हो प्रवासी कहलाने को विवश हो जाता है तो उस के भीतर का दर्द, माँ भारती से बिछुड़ने की पीड़ा कैसे अभिव्यक्ति पाती है, बहुत कम देखने को मिला है। श्रीमती शशि पाधा जी की कविता ’प्रवासी’ इसी भाव को अभिव्यक्त करती है। वे लिखती हैं –

“मैं प्रवासी हुई सखिहै देस मेरा अति दूरयहाँ न मिलती पीपल छैयान
बाबुल की गलियाँयहाँ न वो चौपाल चोबारेन चम्पा न कलियाँ”

वैसा ही दर्द उनकी कविता ’स्मृतियाँ’ एवं ’माँ का आँगन’ में भी दिखाई देता है। फिर संवेदनशील होना ही तो कवि हृदय का पहला लक्षण है। बतौर सुमित्रानन्दन पंत –
“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान”
१३१ पन्नों के अपने इस काव्य संग्रह को कवयित्री ने ’भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं हिन्दी भाषा की समृद्धि में संलग्न प्रावासी भारतीयों’ को समर्पित किया है। पुस्तक का नाम पुस्तक का नाम मानस मंथन प्रतीकात्मक है । पुराणों के अनुसार जब सागर मंथन हुआ था तो मंद्राचल पर्वत की मथनी तथा शेषनाग की रस्सी द्वारा ही देवताओं एवं दानवों ने सागर को मथा था। एक रचनाकार जब अपनी चेतना की मथनी ले अपने अन्तरमन को जिज्ञासा की रस्सियों द्वारा मथता है तो उसे जिन अमूल्य बिम्बों, प्रतीकों, संकेतों इत्यादि की प्राप्ति होती है उसे वह दूसरों को सौंपता जाता है। स्वयं विष पी दूसरों को अमृतपान करवाने वाला रचनाकार ही तो शिव कहलाता है। मानस मंथन भी कवयित्री शशि पाधा जी के अन्तरमन में हुए मंथन से प्राप्त रचनाओं का अमृतपान हमें करवाता है। कवयित्री स्वयं लिखती है – “जीवन के राग-विराग, हर्ष-शोक एवं मानवीय रिश्तों की उहा-पोह ने सदैव मेरे संवेदनशील हृदय में अनगिन प्रश्नों का जाल बुना है। मेरा जिज्ञासु मन इस चराचर जगत में उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढता रहता है। जीवन मीमाँसा की इस भावना से प्रेरित हो ’मानस मंथन’ का बीज अंकुरित हुआ।“
मानस मंथन के कैनवास पर रचनाकार ने शब्दों की तूलिका से जीवन के अनेकानेक रंगों को उभारा है। कहीं वह जीवन को पूर्णता से जीने का मूलमंत्र देती नज़र आती है तो कहीं भ्रूण हत्या पर अपना आक्रोश व्यक्त करती है। कहीं वह प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण करती है तो किसी अन्य रचना में त्याग एवं बलिदान का रंग बिखेरती दिखाई देती है। इन सभी रंगों में से जो रंग सबसे अधिक उभरा हुआ नज़र आता है वह अपने देश की धरती, देश प्रेम का रंग है।
ललित निबन्ध लोभ और प्रीति में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं –
“जन्म भूमि का प्रेम, स्वदेश प्रेम यदि वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो स्थान के लोभ के अतिरिक्त ऒर कुछ नहीं है। इस लोभ के लक्षणों से शून्य देशप्रेम कोरी बकवाद या फैशन के लिये गढ़ा हुआ शब्द है। यदि किसी को अपने देश से प्रेम होगा तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु-पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा। सबको वह चाह भरी दृष्टि से देखेगा। सबको सुध कर के वह विदेश में आँसू बहायेगा।“आचर्य शुक्ल जी का यह कथन कवयित्री शशि पाधा पर पूरा उतरता है। वह तो अपने वतन की गलियाँ, कलियाँ, मोर, चकोर, गंगा-यमुना, फाल्गुन – होली यह सब देखने को तड़प उठती है। और फिर देश प्रेम की यह भाव धारा अश्रुधारा का रूप ले लेती है।उनकी कविता ’प्रवासी वेदना’ तथा ’कैसे भेजूँ पाती’ को पढ़ कर महाकवि कालिदास के मेघदूत की याद ताज़ा हो जाती है। जिस में यक्ष बादलों को अपना प्रेम दूत बना अपनी प्रियतमा को संदेशा देने को कहता है। कवयित्री उड़ती आई इक बदली से अपने घर का हाल-चाल पूछती है। इस कविता की यह पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी हैं।
“उड़ते-उड़ते क्या तू बदलीगंगा मैय्या से मिल आईदेव नदी का पावन जल क्याअपने आँचल में भर लाईमन्दिर की घंटी की गूँजेंकानों में रस भरती होंगीचरणामृत की पावन बूंदेंतन मन शीतल करती होंगी”
किसी भी कवि अथवा कवयित्री की कविताओं को छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रतीकवाद इत्यादि वर्गों में वर्गीकृत करना, उसके साथ अन्याय करना है। वास्तव में जब हम अपना आलोचना धर्म ठीक ढंग से नहीं निभा पाते हैं तो हम मात्र उन्हें विभिन्न वादों-प्रतिवादों में वर्गीकृत कर के ही अपनी विद्धुता का परिचय दे देना चाहते हैं। यह सत्य है कि शशि पाधा जी की कुछ कविताओं को पढ़ बरबस महादेवी वर्मा जी की याद ताज़ा हो जाती है परन्तु कवयित्री की प्रत्येक अनुभूति उसकी निजि है। उसने अपने लिखे प्रत्येक शब्द को स्वयं अनुभूत किया है। मानस मंथन का अक्षर-अक्षर उस ने जिया है। यही उन की सबसे बड़ी विशेषता है।उन की बहुत सी कवितायें उस अज्ञात प्रेमी के लिये हैं जो कभी कवयित्री के मन-वीणा क तार छेड़ उन्हें चैतन्य कर देता है तो कभी अपने स्नेहिल स्पर्श से उन्हें रोमांचित कर देता है। उन की कवितायें अदृष्य, जिज्ञासा एवं पथिक अपने उसी अज्ञात प्रेमी को समर्पित हैं।
अपने समय के बहुत से रचनाकारों, चिन्तकों एवं सन्त जनों ने प्रेम क्या है हमें बतलाया है। अपनी कविता ’प्रेम’ में कवयित्री भी प्रेम को परिभाषित करती हुई कहती है –
-नयन में जले दीप साअक्षर में पले गीत साचातकी की प्रीत साश्वास में संगीत सासजे जो वही प्रेम है।
ऊपरी तौर पर पढ़ने वाले किसी पाठक को यह भी भ्रम हो सकता है कि शशि जी अपने निजि सुखों एवं दुखों को शब्दबद्ध कर रही हैं। परन्तु ऐसा कहीं नहीं है। वह तो सबके सुख में अपना सुख देखती है। सबक दुख ही उसका दुख है। वह तो वसुन्धरा को रक्तरंजित होते देख अनायास ही कह उठती है –
”हरित धरा की ओढ़नी“रक्त रंजित मत करोखेलना है रंग से तोप्रेम का ही रंग भरो”
कवयित्री शशि पाधा मात्र प्रेम निवेदन करती ही नज़र नहीं आती। वह नारी को उसका खोया गौरव दिलाने को भी कटिबद्ध नज़र आती है। उसक लिए नारी अबला न हो कर सबला है, देव पूजित है, वत्सला है, शक्ति रूपा है। दूसरी ओर नारी स्वतन्त्रता के नाम पर मर्यादा भंग करने के विरुद्ध भी उसका स्वर सुनाई देता है। सांकेतिक ढंग से अपनी कवित ’अग्निरेखा’ में मर्यादा की रेखा लाँघने वाली नारी से वह पूछती है –
“किस दृढ़ता से लाँघी तूने।संस्कारों की अग्नि रेखा।
देहरी पर कुछ ठिठकी होगी।छूटा क्या, क्या मुड़ के देखा।“
’अजन्मा शैशव’ कविता में वह हमारे सामाजिक कलंक ’भ्रूण हत्या’ की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं। अजन्मा शिशु ही अपनी हत्या के लिये माँ से प्रश्न कर हमारी चेतना को झंझोड़ता है।
कवयित्री ने छोटे-छोटे बिम्बों, प्रतीकों एवं संकेतों के माध्यम से अपनी बात कही है। कहीं वह बादलों का सांकेतिक प्रयोग करती नज़र आती है तो कहीं अन्य कविता ’ताप’ में वह नारी को सुकोमला एवं निर्बला समझने वालों पर सांकेतिक ढंग से प्रहार करती है। जब वह अपने अतीत की स्मृतियों में खोई हुई होती है, जब वह अपने प्रेममय, गौरवमय अतीत को याद करती है तो दुःखों और निराशाओं से ही घिर नहीं जाती, बल्कि उसके भीतर का दार्शनिक उसे अतीत के प्रेम एवं सौहार्द से वर्तमान के क्षणों को प्रेममय एवं आनन्दमय बनाने का संदेश देता है। वह तो अपने अश्रुओं को भी यह कह कर उदात्त बना देती है –
नील गगन भी कभी-कभी।किरणों की लौ खो देता है।
आहत होगा हृदय तभी तोबरस-बरस यूँ रो लेता है।
मैं भी रो लूँ आज क्योंकिकुछ तो है अधिकार मुझे।

हमारे प्रदेश के प्रख्यात साहित्यकार एवं चिंतक डॉ. ओ.पी. शर्मा ’सारथी’ जी लिखते हैं – “काव्य कला होते हुए प्राण है और प्राण होते हुए कला है। और सबसे बड़ी बात कि जिस समाज में काव्य कला को पूर्ण महत्व दिया जाता है वहाँ पर लय-ताल और संगीत का साम्राज्य रहता है। काय का सारा ढांचा लय-ताल पर आधारित है। यह कभी भी संभव नहीं है और यह संभावना भी नहीं की जा सकती कि व्यक्ति संगीत के तीन गुणों लय-ताल तथा स्वर को समझे बिना काव्यकार हो जाये। यदि उसे काव्यकार होना है तो लयकार और स्वरकार होना ही होगा।“श्रीमती शशि पाधा जी कविताओं में काव्यत्मकता एवं लयात्मकता का उचित तालमेल नज़र आता है। वह तो शब्दलहरियों के साथ स्वरलहरियों को मिलाने की बात करती हुई लिखती हैं –
आओ प्यार का साज़ बजा लें।
सात-सुरों की लहरी गूँजेतार से तार मिला लें।

देश से हज़ारों मील दूर बसने वाली इस कवयित्री के प्रत्येक शब्द में भारत की मिट्टी, संस्कृति एवं संस्कारों की सुगन्ध आती है। हमारे डुग्गर प्रदेश में जन्मी इस कवयित्री की प्रेरणा इन के पति मेजर जनरल केशव पाधा हैं, जो हमारे गौरव हैं। मेरी कामना है कि हम एक सेनानई की प्ररेणाशक्ति से राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा ले यदि माँ भारती की सेवा में जुट जायें तभी इस प्रेममयी कवयित्री की कविताओं को पढ़ने और सराहने का हमारा ध्येय पूर्ण होगा।
Sourse : Manas Manthan (Shashi Padha)

Saturday, February 16, 2008

माँ की किरणों से रोशन था वो

माँ का अहसान बच्चों पर है, उसको ध्यान में रखते हुए श्री बोधराज जफर ने फरमाया है – “ जिस व्याक्ति के सिर पर माँ-बाप लका साया है उंनको भगवान की भक्ति की भी कोई जरुरत नहीं, क्योंकि आनंद स्वरूप माँ-बाप बोलते-चालते और जीते-जागते भगवान के रूप में इनके घर में मौजूद है!” वैसे तो इंसान माँ-बाप के एहसानों का बदला सात जन्म में भी नहीं उतार सकता, क्योंकि माँ-बाप ने ही बच्चों को संसार की हर आँधी, तूफान , और गर्द-गूबार से बचाकर उसका पालन-पोषण किया है, बडा किया, शिक्षा-दिक्षा दिलाई और बच्चे के जवानी में कदम रखते ही उसका विवाह भी किया !
अपने खून-पसिने की कमाई को नि:संकोच सीर्फ अपने बच्चे के किये पानी की तरह बहा दिया और बच्चे की प्रसन्नता को ध्यान में रखते हुए उसके भविष्य का हर हालत और हर कीमत पर ध्यान रखा. बुजुर्गों ने सच ही कहा है :-
“ सोने की सिल गले , आदम का बच्चा पले ! “
परंतु माँ का चरित्र तो और भी सुन्दर और महत्तवपुर्ण है जिसने पूरे नौ मास बच्चे को अपने पेट में रखकर और सख्त से सख्त तकलीफ सहन करके और कई सैकडो परहेज करके जिन्दगी और मौत के मध्य लटककर उसे जन्म दिया , सख्त सर्दी की रातों मेँ बच्चों के पेशाब से तर बिस्तर को बदल-बदलकर स्वयं पेशाब से तर बिस्तर पर सोना और बच्चे को खुश्क बिस्तर पर सुलाना और ढाई तीन वर्ष तक मल-मूत्र से उसको साफ करना क्या महत्त्व नहीं रखता.
वह चेहरा क्या, सूरज था? खुदा था या पैगम्बर था ?
वह चेहरा जिससे बढ्कर खूबसूरत कोई चेहरा हो ही नहीं सकता,
कि वह एक माँ का चेहरा था !
जो अपने दिल के ख्वाबों , प्यार की किरणों से रोशन था !!

` साभार : Gruhsthgeeta, Colkata `

Thursday, February 14, 2008

स्वामी रामसुखदासजी महाराज : हे माँ ...

वर्तमान में नारी-जाति का महान तिरस्कार घोर अपमान किया जा रहा है, नारी के महान मातररूप के नष्ट करके उसको मात्र भोग्या स्त्री का रूप दिया जा रहा है, भोग्या स्त्री वेश्या होती है जितना आदर माता का है, उतना आदर स्त्री (भोग्या) का नहीं है, परन्तु जो स्त्री को भोग्या मानते है, स्त्री के गुलाम है वे भोगी पुरुष इस बात को क्या समझे ? समझ ही नहीं सकते ! विवाह माता बनने के लिए किया जाता है! भोग्या बनने के लिये नहीं, संतान पैदा करने के किये ही पिता कन्यादान करता है! और संतान पैदा करने के लिये ही वरपक्ष कन्यादान स्वीकार करता है. परंतु आज नारी को माँ बनने से रोका जा रहा है और उसको केवल भोग्या बनाया जा रहा है. यह नारी -जाति का कितना महान तिरस्कार है ? वास्तव में मातरी-शक्ति है, वह स्त्री और पुरुष दोनों की जननी है, पत्नी तो केवल पुरुष की ही बनती है, पर माँ पुरुष की भी बनती है और स्त्री की भी. पुरुष अच्छा होता है तो उसकी महिमा अपने कुल में ही होती है पर स्त्री अच्छी होती है तो उसकी पीहर और ससुराल दोनो पक्षों में महिमा होती है. राजा जनकजी सीताजी से कहते है :
"पुत्री पबित्र किए कुल दोऊ"
आजकल स्त्रियों को पुरुष के समान अधिकार देने की बात कही जाती है. पर शास्त्रों नें माता के रूप में स्त्री को पुरुष की अपेक्षा विशेष अधिकार दिया है : " सहस्त्रं तु पितरन्माता गौरवेणातिरिच्यते !! " माता का दर्जा पिता के दर्जे से हजार गुणा अधिक माना गया है. "
सबके द्वारा सन्यासी को भी माता की प्रयत्नपूर्वक वन्दना करनी चाहिये . "माँ" शब्द कहने से जो भाव पैदा होता है , वैसा भाव "स्त्री" कहने से नहीं होता. इसलिये श्रीशंकराचार्यजी महाराज भगवान गोविन्द को भी ''माँ" कहकर पुकारते है. वन्दे मातरम में भी माँ की वन्दना की गई है. हिन्दू धर्म में माता-शक्ति की उपासना का विशेष महत्व है. ईश्वरकोटि के पाँच देवताओं में भी माँ दुर्गा (भगवती) का स्थान है. देवी भागवत , दुर्गासप्तशती आदि अनेक ग्रंथ माँ शक्ति पर ही रचे गये है. जगत की सम्पूर्ण स्त्रियों को भगवती ( माँ) शक्ति का ही रूप माना है.
"विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: ! स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु !!"
संसार के हित के लिये माँ-शक्ति ने बहुत काम किया है. रक्त-बीज आदि राक्षसों का सहांर भी मात शक्ति ने ही किया है. मात-शक्ति ने ही हमारी हिन्दू सभ्यता की रक्षा की है. आज भी प्रत्यक्ष देखने में आता है कि हमारे व्रत- त्यौहार, रीति-रिवाज, माता-पिता के श्राद्ध आदि की जानकारी जितनी स्त्रियों को रहती है, उतनी पुरुषों को नहीं रहती. पुरुष अपने कुल की बात भी भूल जाते है, पर स्त्रियाँ दूसरे कुल के होने पर भी उंनको बताती है कि अमुक दिन आपकी माता या पिता का श्राद्ध है, आदि. मन्दिरों में, कथा-कीर्तन में, सत्संग में जितनी स्त्रियाँ जाती है, उतने पुरुष नहीं जाते . कार्तिक- स्नान , व्रत, दान, पूजन, रामायाण आदि का पाठ जितना स्त्रियाँ करती है, उतना पुरुष नहीं करते . तात्पर्य है कि स्त्रियाँ हमारी संस्क्रिति की रक्षा करने वाली है. अगर उनका चरित्र नष्ट हो जायेगा तो संस्क्रिति की रक्षा कैसे होगी ? एक श्लोक आता है :
असंतुस्टा द्विजा नष्टा: संतुष्टश्च महीभुज : !
सलजा गणिका नटा निर्लज्जश्च कुलाग्ना: !!
(चाण्क्य निति. 8/98)
" संतोषहीन ब्राह्मण नष्ट हो जाता है, संतोषी राजा नष्ट हो जाता है. लजावती वेश्या नष्ट हो जाती है और लजाहीन कुलवधु नष्ट हो जाती है अर्थात उसका पतन हो जाता है. वर्तमान में संतति निरोध के क्रत्रिम उपायों के प्रचार-प्रसार से स्त्रियों में लजा , शील, सतित्व,सच्चरित्रता , सदाचरण आदि का नाश हो जाता है. परिणामस्वरूप स्त्रि-जाति केवल भोग्य वस्तु बनती जा रहै है. यदि स्त्रि-जाति का चरित्र नष्ट हो जायेगा तो देश की क्या दशा होगी ? आगे आने वाली पीढी अपने प्रथम गुरु माँ से क्या शिक्षा लेगी ? स्त्री बिगडेगी तो उससे पैदा होने वाले बेटी-बेटा (स्त्री-पुरुष) दोनों बिगडेंगे. अगर स्त्री ठीक रहेगी तो पुरुष के बिगडने पर भी संतान नही बिगडेगी. अत: स्त्रीओं के चरित्र, शील, लजा आदि की रक्षा करना और उनको अपमानित न होने देना मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है !
***** हे माँ ****

Wednesday, February 13, 2008

वात्सल्यमयी माँ

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माँ के प्यार का न है कोई जवाब !
न ही उसकी कोई कीमत और न ही कोई हिसाब !!
माँ की ही वह गोद है जहाँ मानवता पले !
अगर जन्नत है कहीं तो उसके आँचल के तले !!


जिस तरह माता अपने बेटे के लिये हरेक चीज कुर्बान कर देती है, उसी प्रकार बेटे को चाहिये कि
उसके लिये सब कुछ अर्पण कर दें, लेकिन अफसोस कि सांसारिक बाद्शाहों और अमीरों में इसकी नबहूत कम मिसालें मिलती है1 शाहजहाँ बादशाह की तरह और लोगों ने अपने लिये, अपनी औलाद या
चहेती पत्नी के लिये तो बहुत सी यादगारें कायम की लेकिन खास अपनी माता के लिये यादगार कायम करने वाले बहुत ही कम है!


व्रहद धर्म पुराण में महर्षि वेदव्यासजी माता की महिमा इस प्रकार बयान की है -


(1) पुत्र के लिए माता का स्थान पिता से बढकर होता है क्योंकि वह उसे गर्भ म्रें धारण करती है और माता के द्वारा ही उसका पालन-पोषण हुआ है. तीनो लोकों में माता के समान दूसरा कोई नहीं है !
(2) गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं , विष्णु के समान कोई पूजनीय नहीं और माता के समान कोई गुरु नहीं!


इसलिये


भूलकर भी कभी माँ को न सताओ !


माँ की मुस्कान पर अपना सर्वस्व लुटाओ !!


प्रात: उठकर माँ को सदा शीश झुकाओ !


निश्चय ही हर कार्य में सफलता पाओ !!


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मात-पिता प्रभु गुरु चरनो में...


माँ-बाप को भूलना नहीं :

माँ-बाप को भूलना नहीं
भूलो सभी को मगर, माँ-बाप को भूलना नहीं।
उपकार अगणित हैं उनके, इस बात को भूलना नहीं।।
पत्थर पूजे कई तुम्हारे, जन्म के खातिर अरे।
पत्थर बन माँ-बाप का, दिल कभी कुचलना नहीं।।
मुख का निवाला दे अरे, जिनने तुम्हें बड़ा किया।
अमृत पिलाया तुमको जहर, उनको उगलना नहीं।।
कितने लड़ाए लाड़ सब, अरमान भी पूरे किये।
पूरे करो अरमान उनके, बात यह भूलना नहीं।।
लाखों कमाते हो भले, माँ-बाप से ज्यादा नहीं।
सेवा बिना सब राख है, मद में कभी फूलना नहीं।।
सन्तान से सेवा चाहो, सन्तान बन सेवा करो।
जैसी करनी वैसी भरनी, न्याय यह भूलना नहीं।।
सोकर स्वयं गीले में, सुलाया तुम्हें सूखी जगह।
माँ की अमीमय आँखों को, भूलकर कभी भिगोना नहीं।।
जिसने बिछाये फूल थे, हर दम तुम्हारी राहों में।
उस राहबर के राह के, कंटक कभी बनना नहीं।।
धन तो मिल जायेगा मगर, माँ-बाप क्या मिल पायेंगे?
पल पल पावन उन चरण की, चाह कभी भूलना नहीं।।

NEVER FORGET YOUR PARENTS
Lest you forget everything, never forget your parents.Never forget that their obligations are innumerable.
Worshipped many deities on earth they have, to beget you,So never hurt their pious hearts with your harshness.
Remaining hungry they themselves, fed you and raised you,Do not spit poison, on those who have given you nectar.
They have fulfilled all your desires, and loved you deeply,Fulfill all their wishes, never forget to do this.
Even if you earn millions and your parents are not made happy,Never forget that without serving them millions are like ashes.
You want your children to serve you, become a child and serve,What you do is what you get, never forget this justice.
They slept in the wet, but let you sleep in the dry,Never forget the mother’s loving eyes, and let not tears come to them.
Lovingly flowers they have strewn, along your pathNever become a thorn in the path of those who guided you.
You can buy anything with wealth,but you won’t be able to buy parents.
At all times their feet so pure, never forget to love them.

वैलेंटाइन'स डे पाप का दिन

Cure the mind, and the body will be cured on its own.
‘Valentine’s Day’ or ‘Sin Day’?
While addressing a mammoth gathering of devotes, who thronged the Surat Ashram (Gujarat) in lakhs on the pious occasion of Holy Pujya Bapuji cautioned people all over the world against the disastrous consequences of celebrating the ‘Youths’ Dooms day’ in the name of ‘Valentine’s Day.’ He said that King Claudius of Rome must have been well aware of the significance of celibacy, as he had prevented his soldiers from marrying, so that they might become victorious in war through their physical strength and mental efficiency thus preserved. As the prohibition was imposed forcibly on the soldiers, Saint Valentine, himself being a Christian priest, could not oppose celibacy and hence had arranged their marriage secretly. The King declared him guilty and hanged him to death. It was since 496 A.D. that Pope Galecius started celebrating ‘Valentine’s Day’ in his memory.
Those who celebrate Valentine’s Day’ are only degrading Saint Valentine, as by sending the valentine’s card they try to develop a licentious relationship with their beloveds even before marriage. Had this been agreeable to Valentine, he would not have arranged for the marriages.
The celebrations of such days as that of ‘Valentine’s ’ have been the main reason behind degeneration of moral values of the nations that have discarded the traditional sexual values, and are encouraging people to lead an immoral life. This has caused the degradation of such nations. Seven percent of American children now have sex even before they have become teenagers. 85 percent of American males and 77 percent of American females have had sex by the age of 19. Even after spending crores of dollars on ‘abstinence only’ campaigns in schools, the governments of these nations are unable to solve the consequence problems. Therefore, countries like India should preserve their traditional sexual values by imposing a ban on ‘Valentine’s Day’, and the government must encourage institutions, which promote ethical values so that such problems may never arise in this country.
If they imitate our glorious Inidan culture, they would be blessed with happiness. But if we go to emulate their degrading culture we will be left with an increasing number of AIDS cases, and emotional turmoil of teenagers and mental disorders.
Instead of this, celebrate ‘Love Day’ and worship your parents. Let children behold the Divinity in their parents while parents should visualize the same in their children.
The youth will celebrate ‘Valentine’s Day’, look at each other with lust and dissipate their sexual energy even during the day. This will weaken their intellect, their eyesight and also the future generation. You may verily call this a ‘Sin Day’ for breaking our nation’s backbone. It is not a day of love but a day of harassment to the youth, a veritable ‘Youths’ Dooms day.’ Those ignorant ones may be unaware of this, but doctors, Vaidyas and wise people can well realize whether the sexual energy of the youth will be dissipated or sublimated by exchanging flowers and touching one another.
By worshipping one’s parents, one’s lust will be sublimated to divine love, egotism will be transformed into pure love while parents’ blessings will ensure well being of the children.
Nowadays, even bachelors are trained to be immoral in the name of giving sex-education through some magazines. The government plans to impart sex-education even in schools. It should learn from the experience of western nations where until recently, society provided teenagers with classroom instruction in “safe sex” and “comprehensive sex education”. In general, these curricula fail to provide a strong message to delay sexual activity, fail to deal adequately with the long-term emotional and moral aspects of sexuality, and fail to provide students with the skills needed to develop intimate loving marital relationships as adults.
Over the past five years, there has been a growth in abstinence education programmes that stand in sharp contrast to “safe sex” curricula. The best abstinence education programmes teach:
The primary importance of delaying sexual activity
That human sexual relationships are predominantly emotional and moral rather that physical in character, and
That teen abstinence is important to lead a loving marital relationship as an adult.
The Secret of Eternal Youth (English version of the Hindi book ‘Yauvan Suraksha’ published by the ashram) contains a much more useful and comprehensive information on this subject than all such education can impart. This book deals pragmatically on the harms and hazards of not following the rules of abstinence; and also enumerates the supremely propitious physical, mental, intellectual, spiritual and social benefits of abstinence, thereby encouraging people to lead a life of abstinence.
In order to save the nation from dangerous problems, the government should so arrange that people are imparted education on sex based on ‘abstinence only’ education programme, as taught in the book ‘Yauvan Suraksha’. In case the government fails in this task, then all patriotic citizens should make their valued contribution to their great work of national interest, which will definitely help us emerge as the strongest nation in future.
The Youth of Developed Nations Are Languishing
As per the Innocenti Report card no.3, at least 1.25 million teenagers become pregnant each year in the 28 OECD nations. Of those, approximately half a million seek abortion and approximately three quarters of a million become teenage mothers. 4,94,000 teen births are accounted for by the United States. Every year some 3 million American teenagers contract a sexually transmitted infection (about 1 in every 4 sexually experienced teenagers).
Overall, roughly one-quarters of the nation’s sexually active teens have been infected by a sexually transmitted disease (STD). In one act of unprotected sex with an infected partner, a teenage woman has a 1 in 100 chance of contracting HIV, a 1 in 3 chance of contracting genital herpes and 1 in 2 chance of correcting gonorrhea. Approximately a quarter of all new cases of HIV/AIDS are diagnosed in young people under the age of 22. More than US $ 400 million from federal and state funds has been spent on ‘abstinence only’ campaigns in American schools. Today, one in three US high schools has an abstinence only policy on sex education.
As per a report of ‘The Heritage Center for Data Analysis,’ sexually active girls are more than three times more likely to be depressed all, most, or a lot of the time than are girls who are not sexually active. Boys who are sexually active are more than twice as likely to be depressed all, most, or a lot of times as are those who are not sexually active. Sexually active teenager boys are eight times more likely to attempt suicide than are boys who are not sexually active.
Among girls 14.3 percent of those who are sexually active have attempted suicide and among boys 6.0 percent of those who are sexually active have attempted suicide.
The link between teen sexual activity and depression in supported by clinical experience. Doctor of adolescent medicine, Meg Meekar on page 64 of his book, ‘Epidemic: How Teen Sex is Killing our Kids’, writes, “Teenage sexual activity routinely leads to emotional turmoil and psychological distress… (sexual permissiveness leads) to empty relationships, to feelings of self-contempt and worthlessness. All, of course, precursors to depression.”
Dear Indian brethren! Now think for yourself, are we to import their degradation into our country? Would the parents of Indian girls like them to be swept away with the blind imitation of the western culture and fall victims to lust, undergo abortion or become teenage mothers by getting entangled in the vicious celebrations like Valentine’s Day?
-Pujya संत श्री आसारामजी महाराज
Source: Rishi Prasad April 2006

माँ से बढ्कर कोई देवता नही है !

' न मातु: परं देवतम् '
( माँ से बढकर कोई देवता नहीं है )
क्योंकि :
माँ
  • चांद से महान है क्योंकि उसमें दाग है लेकिन माँ तेरा आँचल पाक है !
  • सूरज से भी महान है क्योंकि उसमे आग है लेकिन माँ तेरी गोद में शीतलता है और सूर्य की भाँति प्रकाश फैलाती है, अंगुली पकडकर चलना सिखाती है!
  • देवी से भी महान है जो दान के बजाय वरदान देती है !
  • समुद्र से महान है क्योंकि उसका पानी खारा होता है लेकिन माँ तेरे आँचल का दूध मीठा ही होता है
  • ब्रह्मा विष्णु महेश से भी महान है क्योंकि तीनों तेरे गर्भ में समाये है !

माँ जन्म ही नहीं जीवन भी देती है - एक शाश्वत जीवन !

अत: जननी व जन्म भूमि स्वर्ग से भी महान है !

Tuesday, February 12, 2008

बहन ममता के विचार ...
आज समूची मानवता माँ के श्रीचरणों में सिर नवांकर उसकी स्तुति में में खडी हैं क्योंकि
आख़िर माँ से बढ़कर दुनिया मे ना तो कोई है और ना ही होगा। माँ की महानता हम क्या हमारे देवी-देवता भी मानते थे वो चाहे कृष्ण है या राम हो या गणेश जी हो सभी मानते है। और तो और हमारी फिल्मों मे भी माँ का स्थान हमेशा ऊंचा ही दिखाया गया है और पुरानी फिल्मों मे एक गाना हमेशा माँ पर आधारित होता था , अनेकों गाने माँ के लिए बनाए गए है जैसे-उसको नही देखा हमने कभी ,पर उसकी जरुरत क्या होगीए माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी.माँ मुझे अपने आँचल मे छुपा ले गले से लगा लेकी और मेरे कोई नहीऔर ये माँ ही होती है जो अपने बच्चों को हर मुसीबत से बचाती है और बच्चों को मुसीबत से लड़ना भी सिखाती है। और हमे इस लायक बनाती है कि हम दुनिया और समाज मे रह सके। हम बच्चे चाहे जितनी गलती करे पर माँ हमेशा उन्हें माफ़ कर देती है। माँ को भगवान् ने इतना शक्तिशाली बनाया है कि अगर उसके बच्चे वो चाहे कहीँ भी हो अगर वो परेशान है तो उसे पता चल जाता है। ऐसा ही एक बार मेरे साथ भी हुआ और शायद बहुत लोगों के साथ भी ऐसा हुआ होगा । उन दिनों हम दिल्ली मे रहते थे हमारी और माँ की रोज ही फ़ोन पर बात होती थी । ऐसे ही एक दिन माँ ने फ़ोन किया और जैसे ही हमने हैलो बोला उन्होने झट से पूछा क्या हो गया हमने लाख कहा कि कुछ नही पर वो तब तक पूछती रही जब तक हमने उन्हें अपनी परेशानी का कारण नही बता दिया। कहने का मतलब है कि माँ तो बच्चों की आवाज भर से ही समझ जाती है कि बच्चे खुश है या दुःखी। और आज हम भी एक माँ है और इस बात को स्वीकारते है।वो कहते है ना कि बच्चे को जन्म देना माँ का पुनर्जन्म होता है क्यूंकि अपने बच्चे मे उसे अपनी ही तस्वीर दिखती है। माँ और बच्चे का रिश्ता हर रिश्ते से ऊपर होता है वैसे आज के ज़माने मे ये परिभाषा कुछ बदल सी रही है।जैसे बच्चे माँ के बिना अधूरे है ठीक उसी तरह माँ भी बच्चों के बिना अधूरी है। आज के दिन हमे दुःख भी हो रहा है क्यूंकि हमारी माँ हमे हमेशा के लिए छोड़ कर जा चुकी है।

माँ की महिमा

मेरे भाई !

बाजारों में गाय का दूध मिल सकता है
लेकिन माँ का नही !
माँ का दूध बाजारों में बिकने की चीज वस्तु नहीं है
वह तो सिर्फ वेदांत शिशु के मुँह में ही झरता है
माँ का दूध अमूल्य है !
इस दूध का मोल हिन्दुस्तान को
बेचकर भी नहीं चुकाया जा सकता है!
ऐसी माँ किसी मुनि-महात्मा से कम पूजनीय नही है !
BAJARON MEIN GAAY KAA DOODH MIL SAKATA HAI
LIKIN MAAN KA NAHIN !
MAAN KAA DOODH BAAZARON MEIN BIKANE KI CHEEJ NAHIN VASTOO NAHI HAIN
VAHA VEDANT TO SIRF SHISHU KE MUH MEIN HEE JHARATA HAI!
MAA KAA DOODH AMULYA HAI !
IS DOODH KAA MOL HINDUSTAN KO
BECHKARA BHEE NAHIN CHUKAYA JAA SAKATA HAI !
AISI MAAN KISI MUNI-MAHATMA SE KAMA POOJANIYA NAHIN HAI.

वात्सल्य (VATSALYA-VSS) के बारे में-

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