मै रोया प्रदेश में, भीगा माँ का प्यार !
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार !!

Sunday, May 11, 2008

माँ जादू है...

माँ शब्द उच्चारते ही लब खुल जाते है, मानो कहाँ रहे हो,
लो दिन के दरिचे खुल गये, अब भावनाओं की गांठे खोल दो,
बहने दो मन को - माँ जो सामने है!
'माँ'- एक छोटे से शब्द में समाये पूरे संसार के, हर इंसान के अस्तित्व के, परवरिश, प्यार और विश्वास के प्रमाण का नाम है! ये नाम तो हर पल के, हर तार में धडकता है ! इसे एक दिन के लिये याद नहीं किया जा सकता क्योंकि किसी भी पल भुलाया ही नहीं जा सकता !
महसूस करके देखिये, माँ किस जादू का नाम है! वह हर पल उस शह से जुडी रहती है, जिसे जन्म दिया और उससे भी जिससे किसी और माँ ने जन्म दिया है ! सबसे टूट जाने, कट जाने के बहाने ढूंढती हमारी दुनिया में ऐसी शह की मौजूदगी आपको जादू से कम लगती है ? इसलिये तो आज खुद पिता बन चुके अपने बेटे के बचपन में बहे किसी आंसू के लिये भी वह खुद को जिम्मेदार मानती है ! आखिर वह माँ है - ताउम्र उस लम्हे का अफसोस मनाती है कि वह अपने बच्चे के आंसू पोंछ नहीं सकी !
कोई हो ही नहीं सकता माँ जैसा ! इसलिये तो हम सब सीर्फ इंसान है और हमारे बीच एज वही है जिसे ईश्वर अपना प्रतिनिधि बनाया है !
(सौजन्य से -मधुरिमा)

Mothers Day SMS

1
M=Motivater
O=Onlyone
T=TenderLover
H=Heartiest
E=Exceptional
R=Responsible
LOVE UR MOM?
Happy mothers day
2.

Being a great mother is a very hard role,
but mother u r the star for this one I know,
I love you Mom.Happy Mothers Day,
Kal Uthte hi Sab Mummy's ko wish karo .
3.
HAPPY "MOTHERS DAY".
11 may apni maa k saath khub ENJOY karo!
DUNIA
KI
SABSE
ANMOL
MOTI
HAI
MAA
maa_MAA_maa_MAA_maa.
4.
The Miracle of Life
nurtured by a woman
who gave uslove and sacrificeis MOTHER
Happy Mothers Day!!i
n advance...!!
5.
The full form of"MUMMY"
M-Maa
U-U Live
M-Many
M-More
Y-Years
Forward this msg to spread this Dua 4 ur mom 2make her Live Long
May GOD Bless Our Mothers...Happy mothers day.
6.

Convey my advance happy mothers day to your mother ..
convey my regards to her to give Me a nice friend / Partner like you.
7.
Mother- that is d bank where we deposit all our hurts & worries,
Be a Vasavian Honour your mother on - 11th May,
Mothers Day,
8.

happy mothers day to all show love an affection
to ur moms as much u can as an orphan i prey to god
u all get ur mother love all d time
HAPPY MOTHERS DAY
9.
What the heart gives away is never gone,
but kept in the hearts of others,
frm dusk to dawn.
Lov U frm the core of my heart.
Happy Mothers day
10.
u've seen me laugh u've seen me cry
N always u were there with me
I may not hav always said it
But thank N I LUV u
Hapy Mothers Day
~~~~~~~~~~~ HAPPY MOTHERS DAY TO YOU ALL BY VATSALYA ~~~~~~~~~~

Saturday, May 10, 2008

Congratulations for Mother's Day

हे जगत जननी आपके श्री चरणों में शत-शत प्रणाम

प सभी मातृ दिवस पर लाख-लाख बधाईयाँ
आपके लिये लाये माँ की ममता से सरोबार ये

सुनने के निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें/Copy n paste in Address bar and hit Go.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
http://www.prashantam.mypodcast.com
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

विशेष - माँ की ममता हमें पुकारे भाग 1,2 एवं 3 अवश्य देखें !


Thursday, May 8, 2008

भीनी सी पुरवाई अम्मा




सारे रिश्ते जेठ दुपहरी

गर्म हवा आतिश अंगारे

झरना दरिया झील समंदर

भीनी सी पुरवाई अम्मा !



घर के झीने रिश्ते मैंने

लाखों बार उधडते देखे

चुपके-चुपके कर देती थी

जाने कब तुरपाई अम्मा!!




- आलोक श्रीवास्तव




Wednesday, May 7, 2008

वो नाच


वो नाच

एक जाने माने संगीतकार थे ! उन्हे एक अजीब सा शगल था, कहीं जंगल में तन्हाई में जा बैठ तबला बजाना ! एक बार देखते है, जैसे ही उन्होने जंगल में तबला बजाना प्रारम्भ किया, तबले की आवाज सुनकर बकरी का एक नन्हा सा बच्चा दौड कर आ गया! जैसे-जैसे संगीतकार तबला बजाते , वह कूद-कूद कर नाचता जाता ! फिर तो ये हमेशा का क्रम हो गया, संगीतकार तबला बजाना और उस मेमने का उछलना, नाचना !

एक दिन उस तबला वादक से रहा नहीं गया, उन्होने उस मेमने से पूछा- 'क्या तुम पिछले जन्म के कोई संगीतकार हो या फिर संगीत के मर्मज्ञ, जो शास्त्रीय संगीत का इतना गहरा जानकारी रखते हो,! तुम्हे मेरी राग-रागिनियों की पेचिदगियां कैसे समझ में आ जाती है?'

उस मेमने ने कहा,-' आपके तबले के उपर मेरी मां का चमडा मढा है! जब भी इससे ध्वनि बहती है, मुझे लगता है जैसे मेरी मां प्यार और दुलार भरी आवाज से मुझे पुकार रही है और मैं खुशी से नाचने लगता हूँ...!'


~~~~~~~~~~ माँ ! मेरी माँ ! ~~~~~~~~~

मातृत्व


मातृत्व

बात उस समय की है जब नार्वे की सुप्रसिद्ध रचनाकार

श्रीमती सिग्रिड अनसेट को नोबेल पुरुस्कार मिलने की सूचना मिली थी!

खबर फेलते देर कहाँ लगती ? पत्रकारों का झुण्ड उनके घर आ धमका !

श्रीमती सिग्रिड ने अत्यंत विनम्र भाव मे पत्रकारों से कहा - पधारने के लिये आप

सभी को धन्यवाद और आभार ! पर खेद है, आप सभी से हमारी मुलाकात कल सुबह होगी~'

'ऐसा क्यों?'

क्या आप पुरस्कार पाकर प्रसन्नता का अनुभव नही कर रही है?

एक पत्रकर ने जानना चाहा.

पुरस्कार पाकर में बेहद खुश हूँ , पर एक माँ होने के नाते अभी-अभी सोये

बच्चे के साथ रहना मैं ज्याद जरूरी समझती हूँ, कृपया माँ की भवानाओं को समझें !

अन्यथा न लें, असुविधा के माफी चाहुंगी ! और ऐसा कह कर वे अपने कमरे की तरफ चली गई !


~~~~ माँ की महिमा कौन जानें ?~~~~

Monday, April 14, 2008

अपने माँ-बाप का दिल ना दुखा (विडियो)

बहु-बेटे द्वारा माता-पिता पर किये आत्याचारों की कहानी
for mp3 version of this video click

Friday, April 11, 2008

एक ही आँगन में हो

(माँ की याद दिलाने वाली एक ऐसी रचना जो रुलाने को मजबूर कर दे )
दो भाई, दोनों अलबेले
तब माँ जिंदा थी. हम भाई घर से दूर अपनी अपनी दुनियाँ में आजिविका के लिये जूझा करते थे. हमारे अपने परिवार थे. मगर हर होली और दिवाली को हम सबको घर पहुँचना होता था. पूरा परिवार इकठ्ठा होता. मामा मामी, चाचा चाची, मौसा मौसी, बुआ फूफा और उनके बच्चे. घर में एक जश्न सा माहौल होता. पकवान बनते, हँसी मजाक होता. ताश खेले जाते और न जाने क्या क्या. उन चार पाँच दिनों का हर वक्त इंतजार होता. माँ कभी एक भाई के पास रहती, कभी दूसरे के पास मगर अधिकतर वो अपने घर ही रहती. वो उसके सपनों का महल था. उसे उसने अपने पसंद से बनाया और संजोया था. वहाँ वो अपने आपको को रानी महसूस करती थी, उस सामराज्य की सत्ता उसके हाथों थी. उस तीन कमरे के मकान में उसका संसार था, उसका महल था वो, उसका आत्म सम्मान था. हम सब भी उसी महल के इर्द गिर्द अपनी जिंदगी तलाशते.
अधिकतर वो अपने घर ही रहती. वो उसके सपनों का महल था. उसे उसने अपने पसंद से बनाया और संजोया था. वहाँ वो अपने आपको को रानी महसूस करती थी, उस सामराज्य की सत्ता उसके हाथों थी. उस तीन कमरे के मकान में उसका संसार था, उसका महल था, उसका आत्म सम्मान था. हम सब भी उसी महल के इर्द गिर्द अपनी जिंदगी तलाशते.
सारे बचपन के साथी उसी महल की वजह से थे. न वो रहे- न साथी रहे. अजब खिंचाव था. फिर एक दिन खबर आती है कि माँ नहीं रही (इतना अंश मेरे अंतरंग मित्र रामेश्वर सहाय 'नितांत' की कहानी"माँ" से, जो मैने उसे लिखकर दिया था और उसने इसका आभार लिखा था नवभारत दैनिक में) .....................अब इस कविता को देखें:
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दो भाई:
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दो भाई, दोनों अलबेले
एक ही आँगन में वो
खेले एक सा माँ ने उनको पाला
एक ही सांचे में था
ढाला साथ साथ बढ़ते जाते हैं
फिर जीवन में फंस जाते
हैं राह अलग सी हो लेती है
माँ याद करे-फिर रो लेती है.
दोनों की वो सुध लेती है
उनके सुख से सुख लेती
है फिर देखा संदेशा आता
दोनों को वो साथ रुलाता.
माँ इस जग को छोड़ चली है
दोनों से मुख मोड़ चली है
दोनों का दिल जोड़ रहा था
वो सेतु ही तोड़ चली है.
शांत हुई जो चिता जली थी
यादों की बस एक गली थी
पूजा पाठ औ' सब काम हो गये
अब जाने की बात चली थी.
दोनों फिर निकले-जाते हैं,
फिर जीवन में फंस जाते हैं.
रहा नहीं अब रोने
वाला देखो, कब फिर मिल पाते हैं.
- -समीर लाल 'समीर'
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अब पढिये इस लेखन पर पाठको के विचार
अनूप शुक्ला ने कहा…
ऐसे ही हमारे मन-पुल टूटते चले जाते हैं।

अनूप शुक्ला ने कहा…
ऐसे ही हमारे मन-पुल टूटते चले जाते हैं। शायद यही जीवन है।

Tarun ने कहा…
समीर जी, ऐसी सेंटी टाईप पोस्ट मत लिखा कीजिये। आपकी ये पोस्ट बिल्कुल यादें के उस गाने की तरह है.... "यादें याद आती हैं"

Shrish ने कहा…
जीवन के सत्य को दर्शाती एक सुन्दर कविता।
mahashakti ने कहा…
बड़ी मार्मिक कविता है, सुन्‍दर लेख

मोहिन्दर कुमार ने कहा…
आपने तो सुबह सुबह ही रुला दिया समीर जी.....मां तो मां ही होती है... मुझे भी अपनी स्वर्गवासी मां की याद आ गयी..दिल को छूने वाली रचना
Mrinal Kant (मृणाल कान्त) ने कहा…
बहुत अच्छा, हृदयस्पर्शी,और बहुत सी बातों की ओर ध्यान दिलाने वाला भी।
बेनामी ने कहा…
very real
yogesh samdarshi ने कहा…
बहुत खूब अभिव्यक्ति है सर. दोनों की वो सुध लेती है उनके सुख से सुख लेती है फिर देखा संदेशा आता दोनों को वो साथ रुलाता.

Manish ने कहा…
भावभीनी रचना !

पूनम मिश्रा ने कहा…
दिल को छू लिया.

ranju ने कहा…
samir ji aap ka yah roop bhi bahut hi dil ko chu lene waala hai ..bahut hi sahi laga isko padh ke bahut kuch yaad aa gaya ..
संजय बेंगाणी ने कहा…
दिल को छू जाने वाली मार्मिक कविता.कुछ ज्यादा ही 'सेंटी' नहीं हो गई?
Rakesh Khandelwal ने कहा…
ज़िन्दगीजो हैएक नदी केकिनारों को जोड़ते पुल की तरहऔर हम लोगमह्ज गुजर जाने के लिये हैंइस पर से.मध्य मेंअगर रुकमिला दिये जायेंप्रावाह में कुछ मोतीतो पड़ता है फ़र्कसिर्फ़अपनी ही अनुभूतियों में.

Dr.Bhawna ने कहा…
माँ का स्थान संसार में कोई नहीं ले सकता। माँ अपने बच्चों का मन पढ लेती है, बिना कहे ही सब समझ जाती है माँ का साथ न हो तो मन की बातें मन में ही रहती हैं कुछ बातें होती हैं जो हम माँ के साथ ही बाँट सकते हैं काश हममें से किसी का, कभी भी, माँ का साथ न छूटा करता पर संसार का नियम हम नहीं बदल सकते, पर काश ऐसा हो पाता!!! आँखे भर आयीं आपकी ये रचना पढकर।
Udan Tashtari ने कहा…
आप सबका बहुत आभार, धन्यवाद.किसी को दुख पहुँचाना या रुलाना मेरा कतई उद्देश्य नहीं था, यह तो जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति मात्र था. मगर साथ मैं बहुत खुश भी हूँ कि आपने रचना को ध्यान से पढ़ा और उसके मर्म को महसूस किया.आप सबका बहुत धन्यवाद.
Udan Tashtari ने कहा…
तरुण भाईमैं इस तरह की पोस्ट कम ही पोस्ट करता हूँ, लिखता जरुर हूँ और आगे से प्रयास करुँगा कि और कम कर दूँ, अब तो मुस्करा दे भाई.. :)

Udan Tashtari ने कहा…
संजय भाई,सच कह रहे हैं. अब लग रहा है ज्यादा ही सेंटी हो गई है. सबके दिल को दुखा कर बड़ी ग्लानी हो रही है.

रजनी भार्गव ने कहा…
कहीं मन के कोने में ये अहसास अभी भी है, आपका लेख पढ़ा तो याद आ गया.बहुत खूब.

Dr.Bhawna ने कहा…
नहीं समीर जी ग्लानि या दिल दुखाने वाली बात क्यों करते हैं ये तो वो हकीकत है जो हम सब जानते हैं यही सृष्टि का नियम है और जब दिल दुखता है तो शब्द भी रोते हैं मैंने भी इस दर्द का महसूस किया है चाहे वो मेरी दादी माँ के या बुआ माँ के जाने हो अन्तिम दर्शन तक नहीं कर पायी दूर रहने के कारण, मैंने भी अपने ब्लॉग में अपना दर्द उकेरा है। आप लिखते रहिये इस बार वादा है आँसू नहीं आयेगे, आये भी तो आपको पता नहीं चलेगा खुश :) :)

मोहिन्दर कुमार ने कहा…
दिल को दुखाने वाली कोई बात नही है समीर जी... रचना वही जो दिल को छू जाये... और कवि वही बनते हैं जो दर्द को महसूस कर सकते है और इस का दूसरों को एहसास भी करा सकते हैं

antarman ने कहा…
समीर भाई,आप के व भाई साहब के साथ मेरे श्र्ध्धा विगलित आँसू,....." माँ जी " के चरणोँ पे ......माँ को बनाया परम कृपालु ईश्वर ने जब उसने सोचा कि " वे हर किसी के पास, किस रुप मेँ रह पाये ? "तब " माँ " का रुप ईश्वर की प्रतिच्छाया बन कर,उद्`भासित हो गया !......श्च्ध्धा सुमन अँजुरि समेटे,-- लावण्या
Reetesh Gupta ने कहा…
बहुत भावपूर्ण लिखा है लालाजी....बधाई

DR PRABHAT TANDON ने कहा…
अंत्यत मर्मस्पर्शी कविता , बिल्कुल इस दौर की सच्चाई को दिखाती हुयी।
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ऎ माँ ! तेरी सूरत से अलग ...



ईश्वर को माँ बनाने में लगभग आठ दिनों तक ओवरटाईम करना पड़ा। नौंवे दिन उसके सामने फरिश्ता हाज़िर हुआ और बोला कि "प्रभु, आप इस नाचीज़ को बनाने में इतना समय क्यों बरबाद कर रहे हैं?" हूं....ईश्वर बोला "तुम जिसे नाचीज़ समझ रहे हो उसे बनाना इतना आसान काम नहीं था।" अच्छा...! फरिश्ते ने कहा। ईश्वर ने कहा, इस माँ में मैंने कई नायाब लक्षण डाले हैं। कैसे गुण? फरिश्ते नें तपाक से पूछा। अब देखो, इसे कैसे भी मोड़ा जा सकता है, लेकिन यह फटेगा नहीं। इसमें लगभग दो सौ चलने-फिरने वाले पुर्ज़े लगे हैं, और सभी को बदला भी जा सकता है। यह सिर्फ़ चाय और बचे-खुचे जूठन पर चल सकती है। जरूरत पड़ने पर भूखे पेट भी सो सकती है। इसमें एक गोद भी है, जिसमें एक साथ तीन बच्चे आराम कर सकते हैं। इसके चुंबन में तो अद्भुत ताक़त है, जो घुटने की चोट से लेकर टूटे हुए दिल तक को दुरुस्त कर सकती है। और हाँ, इसके शरीर में छ: जोड़ी हाथ भी हैं।छ: जोड़ी हाथ की बात सुन फरिश्ता चौंका। "छ: जोड़ी हाथ...! अरे नहीं, यह कैसे हो सकता है? ईश्वर ने कहा, " ओह..यह हाथ तो ठीक है, लेकिन दिक्कत यह है कि इसमें अभी तीन जोड़ी आँखें भी फिट करनी बाकी है।" अच्छा...फरिश्ता हैरान होकर बोला। ईश्वर ने सहमति में गरदन हिलाई। "लेकिन, प्रभु तीन जोड़ी आँखें क्यों?" फरिश्ते ने पूछा। "एक जोड़ी आँख अपने बच्चों के दिल में झांकने के लिए।" "दूसरी जोड़ी सिर के पीछे, यह जानने के लिए कि उसका क्या जानना जरूरी है।" "और तीसरी जोड़ी बोलने के लिए।" क्या....बोलने के लिए...! फरिश्ता फिर से चौंका। "हाँ, ज़ुबाँ, ख़ामोश रहकर भी निग़ाहों से सबकुछ बता देने के लिए कि उसे सब बात का इल्म है। "अरे वाह भगवान जी।" "गज़ब की चीज़ बनाई है आपने।" फरिश्ता बोला।फरिश्ता माँ की तारीफ़ सुन-सुन कर थक गया था। बोला, "बस कीजिए भगवान, आप भी थक गए होंगे। बाकी काम कल कर लीजिएगा।" "मैं नहीं रुक सकता, ईश्वर ने कहा।" "यह मेरी बनाई हुई सबसे नायाब चीज़ है।" "यह मेरे दिल के सबसे क़रीब है।" "यह बीमार पड़ने पर अपना इलाज़ भी स्वयं कर लेगी।" "एक मुट्ठी अनाज से ही पूरे परिवार का पेट भर सकती है।" "अपने जवान बेटे को भी रगड़-रगड़ कर नहलाने में इसे कोई शर्म नहीं आएगी।"फरिश्ता माँ के नज़दीक जाकर उसे छूता है। लेकिन ईश्वर, "आपने इसे बहुत नाज़ुक बनाया है।" "यह इतना कुछ कैसे कर लेगी?" नर्म, मुलायम, कोमल....हूं..ईश्वर मुस्कुराए। फिर बोले, "जानते हो फरिश्ते - उपर से भले ही यह तुम्हें कोमल लगे, लेकिन मैने अंदर से इसे बहुत ठोस बनाया है।" "तुम्हें इस बात का तनिक भी एहसास नहीं है कि यह क्या कर सकती है।" "चट्टान की तरह मुश्किलों को मुस्कुराते हुए झेल सकती है।" ईश्वर बोले।इतना ही नहीं, "सोचने के साथ-साथ इसकी तर्क शक्ति भी गज़ब की है।" "साथ ही यह हालात से समझौता भी कर सकती है।" यकायक फरिश्ते की नज़र किसी चीज़ पर ठिठक जाती है। वो माँ के गालों को छूता है। "ओह....! यह क्या ईश्वर,लगता है आपके इस मॉडल से पानी रिस रहा है।" "मैंने तो आपसे पहले ही कहा था न, कि आप इस छोटी सी चीज़ में कुछ ज़्यादा ही फ़ीचर डाल रहें हैं।" "ये तो होना ही था।"फरिश्ते की इस बात पर ईश्वर ने एतराज़ जताई। बोले, "गौर से देखो फरिश्ते, यह पानी नहीं है।" "दरअसल यह आँसू हैं।" लेकिन आँसू किस लिए भगवान?" फरिश्ते ने पूछा। "यह तरीका है, उसकी खुशी को व्यक्त करने का।" "अपने ग़म को छुपाने का।" "साथ ही निराशा, दर्द, तनहाई, दुख और अपने गौरव को जताने के लिए भी ये इन आँसुओं का ही तो सहारा लेगी।"फरिश्ता, ईश्वर के बनाई हुई "माँ" से बहुत प्रभावित हुआ। उसने ईश्वर से कहा, "आप धन्य हो प्रभु।" "आपकी यह कृति सचमुच संपूर्ण है।" "आपने इसे सब कुछ तो दिया है।" "यहाँ तक कि अश्रु भी।" ईश्वर मुस्कुराए और बोले "फरिश्ते तुमने समझने में फिर से ग़लती की है।" "मैंने तो सिर्फ़ एक माँ बनाई थी।" "और इस आँसू को तो माँ ने स्वयं ही बनाया है।"
- राजीव कुमार पटना

मेरी माँ

मेरी माँ
माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है,
सारे जग में सबसे सुंदर,
माँ की मूरत क्यों होती है॥
जब नन्हे-नन्हे नाज़ुक हाथों से,
तुम मुझे छूते थे. . .कोमल-कोमल बाहों का झूला,
बना लटकते थे. . .मै हर पल टकटकी लगाए,
तुम्हें निहारा करती थी. . .
उन आँखों में मेरा बचपन,
तस्वीर माँ की होती थी,
माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है॥
जब मीठी-मीठी प्यारी बातें,
कानों में कहते थे,
नटखट मासूम अदाओं से,
तंग मुझे जब करते थे. . .पकड़ के आँचल के
साये,तुम्हें छुपाया करती थी. . .
उस फैले आँचल में भी,
यादें माँ की होती थी. . .
माँ बनकर ये जाना
मैंने,माँ की ममता क्या होती है॥
देखा तुमको सीढ़ी दर सीढ़ी,
अपने कद से ऊँचे होते,
छोड़ हाथ मेरा जब तुम भीचले कदम बढ़ाते यों,
हो खुशी से पागल मै,तुम्हें पुकारा करती थी,
कानों में तब माँ की बातें,
पल-पल गूँजा करती थी. . .
माँ बनकर ये जाना
मैनें,माँ की ममता क्या होती है॥
आज चले जब मुझे छोड़,
झर-झर आँसू बहते हैं,
रहे सलामत मेरे बच्चे,
हर-पल ये ही कहते हैं,
फूले-फले खुश रहे सदा,
यही दुआएँ करती हूँ. . .
मेरी हर दुआ में शामिल,
दुआएँ माँ की होती हैं. . .
माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है॥
- सुनिता सानु
(अत्यंत खूबसूरत एवं माँ की याद दिलाने वाली अन्य सामग्री के लिये )

Wednesday, April 9, 2008

माँ दरअसल आकाश है!



मां पर लिखना नहीं चाहिए।
बोले तो मां अलिख्य विषय है।
मां दरअसल आकाश है,
उस पर क्या लिखो,
कहां से शुरु करो,कहां खत्म करो,
कहां लपेटो।उस आकाश की छांह में पड़े रहो,
लिखने-ऊखने का मामला बेकार है।
कित्ता भी लिख लो,
आकाश को समेटना संभव कहां है भला।


alok puranik जी ने October 27th, 2007 ,8:59 pm

माँ के नाम


माँ के नाम

बचपन में अच्छी लगे, यौवन में नादान !
आती याद उम्र ढले क्या थी माँ कल्यान !!1!!
करना माँ को खुश अगर कहते लोग तमाम !
रौशन अपने काम से करो पिता का नाम !!2!!

विद्या पाई आपने बने महा विद्वान !
माता पहली गुरु है सबकी ही कल्याण !!3!!

कैसे बचपन कट गया, बिन चिंता कल्यान !
पर्दे पिछे माँ रही, बन मेरा भगवान !!4!!

माता देती सपन है, बच्चो को कल्यान !
उनको करता पूर्ण जो, बनता बही महान !!5!!

बच्चे से पुछो जरा, सबसे अच्छा कौन !
उंगली उठे उधर जिधर, माँ बैठी हो मौन !!6!!

माँ कर देती माफ है, कितने करो गुनाह !
अपने बच्चों के लिये उसका प्रेम अथाह !!7!!


- सरदार कल्याणसिंह

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Tuesday, April 8, 2008

क्षमा करना माँ - घुघूती बासूती द्वारा

क्षमा करना माँमैंने भी तुम्हारी इच्छाओं,अपेक्षाओं को नज़र अन्दाज कर दिया माँक्षमा करना माँ ,मैं तुम जैसी न बन सकी,मैं प्रश्न करती रहीऔरों से नहीं तो स्वयं से तो करती रही माँ,मैं त्याग तो करती रहीकिन्तु इन प्रश्नों ने मुझेत्यागमयी न बनने दिया,मैं ममता तो लुटाती रहीकिन्तु ममतामयी न हो सकी।मैंने तो सुहाग चिन्हों को भी नकार दिया,साखा, पोला, लोहा, सिन्दूर, बिछिये,चरयो कहीं पेटी में रख दिये,सौभाग्यवती,पुत्रवती भव: न कहने दिया कभी,समझौते के तौर परपिताजी बुद्धिमती ही बनाते गये मुझेऔर इस बुद्धि ने ही सिखाये मुझे इतने प्रश्नप्रश्न पर प्रश्न !कोई मुझे उत्तर न दे सका माँ।क्यों मेरी बेटियों के जन्म से लोग दुखी थेक्यों मेरे जन्म पर पेड़े न बँटे थेक्यों मेरा नाम मुझसे छिन गयाक्यों मेरा गाँव मुझसे छिन गयाक्यों मेरा मैं मुझसे छिन गया ?मेरे प्रश्नों के मेरे पास सही उत्तर तो न थेकिन्तु एक प्रतिक्रियावाद मेंमैंने मन ही मन अपना इक नाम रख लियामैंने खूब चाहा पुत्रवती न बननामैंने और अधिक चाहा पुत्रीवती बननाशायद इच्छा शक्ति से हीमैंने पुत्रियों को जन्म भी दे दिया।कितनी खुश थी मैं एक पुत्री होने परफ़िर एक और पुत्री होने पर मैं और खुश हुईमैंने राहत की साँस लीअब तो मैं पुत्रवती होने से बच गई।मुझे पुरुषों से,पुत्रों से कोई शिकायत न थी माँमैं तो बस उन अवाँछित आशीर्वादों से तंग थी माँ।मैं तंग थी उस संस्कृति से माँजिसमें मेरा अवमूल्यन होता था माँजिसमें मेरी ही नस्ल के शत्रु बसते थेजिसमें मेरी ही नस्ल उत्साहित थीन ई न ई तकनीक आई थीमेरी नस्ल का नामों निशां मिटाने कोहमने तो पढ़ा विज्ञान हमें आगे बढ़ाएगाकिन्तु यहाँ तो विज्ञानहमें संसार से ही विदा कर रहा थाऔर मेरी संस्कृति ने, समाज नेविज्ञान का क्या सदुपयोग निकालाफ़िर भी सब मुझे इन्हीं दोनों का वास्ता देते थेतो मैं, माँ, बस प्रश्न पूछती थी ,तुमसे नहीं तो स्वयं से ।याद है माँ,जब मैं तुम्हारे घर आती थीजब तुम खाना बनाती थींतब यही होता था प्रश्नजवाँई को क्या है खाना पसन्दजब मैं सास के घर जाती थीकोई नहीं पूछता था कि क्या है मुझे पसन्दमैं कहाँ घूमना चाहती थीमैं क्या खाना चाहती थींतब भी जब मैं खाना बनाऊँतब भी जब कोई और बनाएक्यों माँ ?क्या मेरी जीभ में स्वाद ग्रन्थि न थींमेरा पेट न थाक्या मेरी इच्छाएँ न थीं ?बड़ी बड़ी बातों को छोड़ो माँछोटी छोटी बातें भी सालती हैं।फ़िर वे ही प्रश्नकितने सारे प्रश्नजो मुझे ममता, गरिमा व त्यागसबके प्रचुर मात्रा में होने पर भीममतामयी नहीं बनने देतेगरिमामयी नहीं बनने देतेत्यागमयी नहीं बनने देतेकुल मिलाकर मेरे स्त्रीत्व को(मेरी नजर में नहीं समाज,संस्कृति वालों की नजर में )मुझसे चुरा लेते हैं।काश, ये प्रश्न न होतेपर माँ ,इन्हीं प्रश्नों पर तोमेरा बचा खुचा मैं टिका है।जानती हो माँ,आखिर समय बदल गयाअब जब मैं पुत्रियों के घर जाती हूँवे व जवाँई पूछते हैंक्या खाओगी माँकहाँ चलोगी माँकौन सी फ़िल्म देखोगी माँकौन सी पुस्तक खरीदोगी माँअचानक इस पुत्रीवती माँ की भीपसन्द नापसन्द हो गईउसकी जीभ में फ़िर से सुप्त स्वाद ग्रन्थियाँ उग गईंउसकी आँखों,उसका मन,उसका मस्तिष्क, सबका पुनर्जन्म हो गयाऔर मैं पुत्रीवती, माँ व्यक्ति बन गई ।देखो माँ, अव्यक्ति मानी जाने वालीइन स्त्रियों, मेरी पुत्रियों नेमुझे व्यक्ति बना दिया
साभार: http://ghughutibasuti.blogspot.com/

माँ

माँ
माँ, ये एक ऐसा शब्द है जिसकी महत्ता ना तो कभी कोई आंक सका है और ना ही कभी कोई आंक सकता है। इस शब्द मे जितना प्यार है उतना प्यार शायद ही किसी और शब्द मे होगा। माँ जो अपने बच्चों को प्यार और दुलार से बड़ा करती है। अपनी परवाह ना करते हुए बच्चों की खुशियों के लिए हमेशा प्रयत्न और प्रार्थना करती है और जिसके लिए अपने बच्चों की ख़ुशी से बढकर दुनिया मे और कोई चीज नही है। जब् हम छोटे थे और हमारी माँ हम को कुछ भी कहती थी तो कई बार हम उनसे उलझ पड़ते थे कि आप तो हमको यूँही कहती रहती है कई बार माँ कहती थी कि जब तुम माँ बनोगी तब समझोगी और ये सुनकर तो हम और भी नाराज हो जाते थे। हम लोग कभी भी माँ को पलट कर जवाब नही देते थे हाँ कई बार बहस जरूर हो जाती थी।
हमारी दीदियों की शादी के बाद तो माँ हमारी सबसे अच्छी दोस्त बन गयी थी और बाद मे कुछ सालों के लिए हमारे पापा दिल्ली आ गए थे जिसकी वजह से हमारी और माँ की आपस मे ख़ूब छनती थी। हम दोनो बहुत चाय पीते थे पापा अक्सर कहते थे की तुम लोगों को बस चाय पीने का बहाना चाहिऐ । घर मे है तो चाय चाहिऐ बाहर से घूम कर आये है तो चाय चाहिऐ , बोर हो रहे है तो भी चाय चाहिऐ। सच मे जब् भी कोई नौकर दिख जाता हम लोग चाय की फरमाइश कर देते ।क्या मस्ती भरे दिन थे । हमारे दोस्त तो ये भी कहने लगे थे की अब तो ममता सबको भूल जायेगी क्यूंकि इसके मम्मी-पापा जो दिल्ली आ गए है। और हुआ भी वही जब् भी छुट्टी होती बस बच्चों को गाड़ी मे डाला और पहुंच गए मम्मी के यहाँ।
पर कई बार हम बच्चे ना चाहते हुए भी माँ को दुःख दे जाते है कुछ बातें ऐसी होती है जिन्हे हम चाहकर भी नही भूल पाते है। जैसे यहाँ पर हम जो वाक़या लिख रहे है वो इतना समय बीत जाने पर भी हम भूल नही पाए है क्यूंकि हमे हमेशा ये लगता है कि हमने माँ से इस तरह क्यों बात की ? ये बात दिसम्बर २००४ की है उन दिनों माँ की तबियत कुछ खराब चल रही थी। हमे अंडमान लौटने मे कुछ दस दिन ही बचे थे और इसलिये माँ हमसे मिलने दिल्ली आयी हुई थी। दिल्ली मे हमारी भतीजी भी होस्टल मे रहती थी और चुंकि हम अंडमान मे थे इसलिये हमारा बेटा भी अपने collage के होस्टल मे रहता था । एक दिन की बात है घर मे mutton बना था ,हमारा बेटा और हमारी भतीजी दोनो ही होस्टल से घर आये थे ।
हमारे बेटे को माँसाहारी खाना बहुत पसंद है । हम सभी खाने का मजा ले रहे थे आख़िर माँ ने जो बनाया था वो कहते है ना की माँ के हाथ के बने खाने का स्वाद ही अलग होता है हम लोग लाख कोशिश करे वैसा नही बना सकते। आख़िर मे एक पीस बचा था तो एक पीस क्या रखा जाये ये सोच कर माँ ने बेटे को कहा की तुम ले लो और हमने भतीजी को बोला और बाद मे हमने अपनी भतीजी को वो चावल के साथ खाने के लिए serve किया ये कहते हुए की बेटा तो आजकल घर मे ही है आप फिर बना दीजियेगा पर शायद हमारे कहने का अंदाज कुछ गलत था जो माँ को अच्छा नही लगा और बाद मे वो उठकर अन्दर कमरे मे चली गयी थी । जब् हम अन्दर कमरे मे गए तो हम हैरान रह गए उनको इतना दुःखी देखकर और हमने उनसे माफ़ी मांगी कि आइन्दा हम ऐसा कुछ नही करेंगे जिससे उन्हें दुःख हो। पर आज भी हम इस बात को भुला नही पाते है ,आज भी ये सोच कर हमे अपने पर ग़ुस्सा आता है की हमने माँ से ऐसे क्यों बात की थी।

बिटिया जरा सम्भल के__


- मालविका अनुराग

सारी दुनिया में आपका पाला भले लोगों से ही पड़े, यह कतई जरूरी नहीं। घर से बाहर या कई बार घर में भी आपकी हँसती, खिलखिलाती बिटिया का सामना बुरी नजरों से हो सकता है। ऐसे में जरूरत होगी उसे संभलकर, सूझबूझ व चतुराई से अपना रास्ता बनाने की। ताकि वह वेश बदले मुखौटे पहने खलनायकों से बच सके।पिछले दिनों एक स्तंभकार की टिप्पणी पढ़ने को मिली, जिसमें उन्होंने लिखा है, 'नारी की देहयष्टि को देखकर मवाली से लेकर महात्मा पुरुष तक के मन, हृदय, शरीर में कैसे-कैसे स्पंदन उठते हैं, इसके बारे में शायद वे नहीं जानतीं क्योंकि वे पुरुष नहीं हैं। पुरुष के हार्मोंस और एंजाइम्स की कार्यशैली के बारे में उन्हें ज्यादा पता नहीं होता।' यह टिप्पणी एक पुरुष की ही उनकी प्रकृति और मानसिकता के बारे में सहज स्वीकारोक्ति है और महिलाओं के लिए चेतावनी देने वाले अलार्म से कम नहीं है। बरसों पहले कॉलेज में जॉब लगने पर मैं खुशी-खुशी अपनी व्याख्याता मैडम से मिलने गई। थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा, 'कैसा माहौल है, कैसे लोग हैं?' मैं नितांत उत्साह से लबरेज थी, अपनी ही रौ में बोली, 'सब लोग बहुत ही अच्छे हैं।' तब उन्होंने जवाब दिया, 'अभी तुम्हेंकई तरह के लोग मिलेंगे।' उनके बोलने का यही मतलब था कि इतनी जल्दी कोई निर्णय मत लो। मैडम की बात सुनकर में असमंजस में पड़ गई और मुझे बुरा भी लगा। लेकिन समय के गुजरने के साथ-साथ मैडम के बोलों का निहितार्थ खुलता गया और मुझे सतर्क भी बनातागया। एक छोटे से वाक्य में उन्होंने कितनी गंभीर बात बोल दी थी। उनका स्पष्ट इशारा कुछ पुरुषों की बुरी मानसिकता तथा उनके व्यवहार की ओर था। हालाँकि सब लोग ऐसे नहीं होते, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं। कभी सज्जनता, मार्गदर्शक, कभी पिता-भाई स्वरूप,कभी निश्चल मैत्री का मुखौटा ओढ़े हुए ये हमारे सामने आते हैं और जब भूल से इस मुखौटे की कोई पर्त हवा में उड़ती है तो इन लोगों का असली चेहरा सामने आ जाता है। परिजनों द्वारा प्रदत्त सुरक्षा तथा स्वच्छता से भरे वातावरण के कारण अधिकांश युवतियाँ ऐसेचेहरों को पहले पहल नहीं समझ पातीं। वे सारी
दुनिया को अपने घर और परिवार जैसा ही समझती हैं। इसी सोच के साथ वे घर से बाहर कदम भी रखती हैं, उन्हें लगता है जैसी वे घर में रहतीं, पहनतीं, आचरण करती हैं, वही बाहर भी कर सकती हैं, पर असल में उन्हें कुछ बिंदुओं पर सावधानी रखनी चाहिए। आइए जानें, क्या हैं ये बिंदु-
* शालीन और गरिमामय पहनावे को तरजीह दें। शालीन वस्त्र हमेशा आपके सम्मान को बढ़ाएँगे ही, साथ ही छींटाकशी के अवसरों को भी नगण्य कर देंगे।
* मुँहबोले रिश्ते बनाने में जल्दबाजी न दिखाएँ। कुत्सित सोच वाले लोग अधिकतर रिश्तों की आड़ में ही दुष्चक्र फैलाते हैं। बहुत मीठा बोलने वाले लोगों से कुछ दूरी बनाए रखें। याद रखिए जो दिखता है, वह हर बार सच नहीं होता।
* घर के बाहर प्रेक्टिकल सोच और प्रोफेशनल व्यवहार को अपनाइए। कार्यालयीन रिश्तों में भी इमोशनल होने से बचें, अपने कर्तव्यों में कोताही न बरतें। ऐसा करने से एक महिला होने के नाते आप सहकर्मियों से सम्मान ही पाएँगी और विकृत मनोवृत्ति के लोग आपसे बुरा व्यवहार करने की हिमाकत नहीं कर पाएँगे।
* यदि आपके संपर्क में आने वाला व्यक्ति चाहे वह आपका सहकर्मी हो, व्यापार से संबंधित हो, परिचित हो या फिर रिश्तेदार ही क्यों न हो, कभी कोई अनचाहा व्यवहार करने की चेष्टा करे, कोई द्विअर्थी टिप्पणी करे, अश्लील भावभंगिमा बनाए तब चुप रहने की बजाय उसका पुरजोर विरोध कीजिए और जता दीजिए कि उसका ऐसा बर्ताव सहन नहीं किया जाएगा। तभी आप भविष्य में दुर्व्यवहार को टाल सकती हैं।
* पारिवारिक फंक्शन, शादियों में बच्चों खासकर नन्ही बालिकाओं को किसी परिचित के भरोसे न छोड़ें। बच्ची यदि आपके किसी निकट रिश्तेदार के ही किसी अनचाहे व्यवहार, टिप्पणी के बारे में आपको बताना चाहे तो उसे झिड़के नहीं, उसकी बात पर गौर करें। उसे अकेला न छोड़ें भले ही आपको फंक्शन की रस्मों का आनंद लेने में अवरोध आए। बच्ची की सुरक्षा आपका पहला फर्ज है।
* महिलाएँ पारिवारिक रिश्तों की डोर को कभी भी कमजोर न पड़ने दें। पारिवारिक रिश्तों में विघटन झेलती हुई महिलाएँ आसानी से इमोशनली ब्लैकमेलिंग का शिकार हो जाती हैं। तब सहयोग के लिए बढ़े हाथ भविष्य में कुछ और ही हथियाने की मंशा लिए उस महिला के जीवन में प्रवेश कर जाते हैं।
* अपनी बड़ी होती, स्कूल-कॉलेज जाती हुई बेटियों से हमेशा दोस्ताना संबंध बनाएँ। उसकी छोटी से छोटी बात सुनें, नजरअंदाज न करें। आपकी परवाहभरी परवरिश में वह दुनियादारी की कई बातें घर में ही सीख जाएगी और समय आने पर अच्छे-बुरे में फर्क भी कर पाएगी। उसे आत्मविश्वासी बनाएँ। अपने अनुभवों से सीख दें और लोगों को पहचानना सिखाएँ।
* महिलाएँ यदि मजबूत बनें, सुदृढ़ विचार शक्ति को अपनाएँ, पारिवारिक संबंध और दूसरी महिलाओं से भी आपसी संबंध मजबूत बनाएँ तो अनेक अनचाही चीजों को विदा कर सकती हैं और परिवार तथा समाज में भी गरिमामय खुशहाल जीवन जी सकती हैं।
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परिभाषा से परे है माँ


- तन्मय वेद 'तन्मय'

माँ एक सुखद अनुभूति है। वह एक शीतल आवरण है जो हमारे दुःख, तकलीफ की तपिश को ढँक देती है। उसका होना, हमें जीवन की हर लड़ाई को लड़ने की शक्ति देता रहता है। सच में, शब्दों से परे है माँ की परिभाषा।माँ शब्द के अर्थ को उपमाओं अथवा शब्दों की सीमा में बाँधना संभव नहीं है। इस शब्द की गहराई, विशालता को परिभाषित करना सरल नहीं है क्योंकि इस शब्द में ही संपूर्ण ब्रह्मांड, सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य समाया है। माँ व्यक्ति के जीवन में उसकी प्रथम गुरु होती है, उसे विभिन्ना रूपों-स्वरूपों में पूजा जाता है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में मातृ ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। भारतीय संस्कृति में जननी एवं जन्मभूमि दोनों को ही माँ का स्थान दिया गया है। मानव अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति जन्मभूमि यानी धरती माँ से, तो जीवनदायी आवश्यकता की पूर्ति जननी से करता है। मनुष्य
माँ अनंत शक्तियों की धारणी होती है। इसीलिए उसे ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप मानकर ईश्वर के सदृश्य माना गया है। माँ के समीप रहकर उसकी सेवा करके, उसके शुभवचनों, शुभाशीष से जो आनंद प्राप्त किया जा सकता है वह अवर्णनीय है
से लेकर पशु एवं पक्षियों तक को आत्मनिर्भर, स्वावलंबी एवं कुशल बनाने के लिए उनकी माँ उन्हें स्वयं से अलग तो करती है परंतु उनकी सुरक्षा के प्रति हमेशा सचेत रहकर अपने ममत्व को बनाए रखती है। परंतु ठीक इसके विपरीत कई बार मानव स्वयं अपने बढ़ते बुद्धि विकास के कारण अपनी सुरक्षा एवं आवश्यकता के प्रति स्वार्थी होकर माँ और उसकी ममता के प्रति उदासीन हो जाता है। फिर वह अपनी पूर्ति के लिए जननी और जन्मभूमि दोनों का दोहन तो करता है परंतु उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना भूल जाता है। जो व्यक्ति अपने इन कर्तव्यों का पालन करता है वो स्नेह, ममत्व की छाँव में रहकर सद्गुण, संस्कार, नम्रता को प्राप्त करता है। वह अपने जीवन में समस्त सुखों और जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर ऊँचाइयों को पा लेता है। वहीं ऐसे व्यक्ति जो अपने कर्तव्यों के निर्वहन में मातृशक्ति को, उसके स्नेह, ममत्व को उपेक्षित कर उन्नति का मार्ग ढूँढने का प्रयास करते हैं, वे जीवन भर निराशा के अलावा कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते। माँ अनंत शक्तियों की धारणी होती है। इसीलिए उसे ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप मानकर ईश्वर के सदृश्य माना गया है। माँ के समीप रहकर उसकी सेवा करके, उसके शुभवचनों, शुभाशीष से जो आनंद प्राप्त किया जा सकता है वह अवर्णनीय है। अपने दिए स्नेह के सागर के बदले माँ बच्चों से कुछ नहीं चाहती। वह हर हाल में केवल बच्चों का हित सोचती है, खुद को मिटाकर भी। इसलिए अपनी ओर से हम उसे कभी दुःख न दें, यही हमारा कर्तव्य होना चाहिए।

Sunday, March 30, 2008

माँ-बाप की आँखों में आंसू...

माँ-बाप की आँखों में दो बार ही आंसू आते है !
एक तो लडकी घर छोडे तब और दूसरा लडका मुँह
मोडे तब, पत्नि पसंद से मिल सकती है !
मगर माँ तो पुण्य से मिलती है इसलिये पसंद
से मिलने वाली के लिये पूण्य से मिलने वाली को
मत ठुकरा देना ! जब तू छोटा था तो माँ की शय्या गीली रखता
था, अब बडा हुआ तो माँ की आंख गीली रखता है! तू कैसा
बेटा है ? तूने जब धरती पर पहला सांस लिया, तब
माँ-बाप तेरे पास थे अब तेरा फर्ज है कि माता-पिता
जब अंतिम सांस लें, तब तू उनके पास रहे ...
------ मुनि श्री तरुणसागर जी

माँ को अपने बेटे का इंतजार..

माँ को अपने बेटे का ईंतजार ...
आप से बाहर भले ही डाक्टर, वकील, व्यापारी और बुद्धिजीवी
बने रहें लेकिन शाम को जब घर पहुंचे तो अपने पेशे को
बाहर छोड्कर हे घर में प्रवेश करें ! कारण कि
वहाँ तुम्हारे दिमाग कि नहीं दिल की जरुरत है. घर पर कोई मरीज, मुवक्किल, ग्राहक
थोडी न तुम्हारा ईंतजार कर रहा है, जो तुम डाक्टर, वकील या
व्यवसायी बनकर घर लौट रहे हो!
वहाँ तो एक माँ को अपने बेटे का, पत्नी को अपने पति का
और बच्चों को अपने पिता का इंतजार है !
शाम को अपने घर पिता, पति और पुत्र की हैसियत से ही लौटना चाहिये !
--- आदरनीय मुनि श्री तरुणसागरजी

प्रशांतभाई

अपने घर परिवार में माता-पिता के साथ भले ही कभी
जुबान चल भी जाये पर उनके साथ बोल-चाल बंद मत करना
क्योंकि बोलचाल बंद करने से समझोते या प्यार की सारे राहे स्वत:
ही बंद हो जाती है1 छोटे बच्चों की तरह बनकर रहो, वो लडाई जगडे के दूसरे क्षण
वापस एक हो जाते है.
गुस्सा आना स्वाभाविक है मगर उसके बाद अपने माता-पिता से दुस्मनी बना लेना
बिल्कुल समझदारी नहीं होती !
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मुनि तरुण सागर जी

माँ-बाप होने के नाते अपने बच्चों को
खूब पढाना-लिखाना और पढा-लिखाकर खूब
लायक बनाना ! मगर इतना लायक भी मत बना देना कि वह
कल तुम्हे ही ' नालायक' समझने लगे.
अगर तुमने आज यह भूल की तो कल बुढापे में तुम्हें
बहुत रोना पछताना पडेगा! ये बात मैं इसलिये कय
रहा हूं क्योंकि कुछ लोग यह भूल जिंदगी मैं कर चुके
है और वे आज रो रहे है,
अब पछताने से क्या होत है जब चिडियाँ चुग गई खेत !
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Thursday, March 20, 2008

Dr. Srimati Tara Singh

सुख का उदगम माँ की गोद
है संतान की इच्छाओं का ,स्तर -स्तर हर्षित
रहेमाता-पिता सर्वस्व लुटाने बरबस रहते तैयार
सुरपुर का सब मीठा फल रखते उसके लिए संभाल धिक्कार है
ऐसे संतान को , बावजूद इसकेअपने बूढे माता -पिता से ,
विमुख होकर जीतारखता नहीं उनका खयाल,
तब भी पिता चाहतामेरे पुत्र का बाल नहाते वक्त भी न
टूटेन ही पाँवों में पड़े कंकड़ी का दागव्यर्थ है उसकी साधना ,
पूजा -पाठ , सन्यासकर में धर्मदीप न हो ,
तो सब है बकवास चित्त प्रभु के चरणों में,
चाहे जितना लगा लेजितना कर ले
दान - पुण्य , तप , उपवास नहीं मिलने वाला सुख - शांति का आवास
क्योंकि सुख का उदगम माँ की गोद
हैपिता का प्यार है और है सेवा-धर्म
प्रयासइसलिए दायित्व ग्रहण कर एक अच्छे संतान काक्या है माता- पिता की इच्छा , जान चिंता कर किसी भी बुरे कर्म के लिए चरण उठाने से
पहल्रेसोचो कहीं तुम्हारी पद- ध्वनियाँ , तुम्हारी आने- वाली पीढियों के कानों तक तो नहीं पहुँच रहीक्योंकि जैसा संदेश , भूमि से अम्बर को जायगावहाँ से आने वाला , वैसा ही तो आयगाहो कोई दुनिया में ऐसा कोई माता-पिता दिखाजो हाथ जोड़कर , देव - देवताओं से कहेहे देव ! हमें जीने दो , मरे हमारे बच्चे सगहेवे तो चाहते , बरसे रंग रिमझिम कर गगन सेभीगे मेरे संतान का स्वप्न निकलकर मन से

बेटी होने का सुख या दुख - अनु सपन की एक गज़ल



मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही

घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ

ओढ कर स्वपन सारा शहर सो गया,

ओढ कर स्वपन सारा शहर सो गया,

राह पापा की तकती रही बेटीयाँ.

छोड माँ-बाप-बेटा-बहू चल दिये,

छोड माँ-बाप-बेटा-बहू चल दिये,

खुशबू बन के महकती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,

अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,

कहते-कहते झिझकती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेतीयाँ

इस जमाने ने शर्मो-हया बेच दी,

इस जमाने ने शर्मो-हया बेच दी,

राह चलते सहमती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ

माँ संवेदना है - ओम व्यास जी की कविता




माँ…माँ संवेदना है, भावना है अहसास
हैमाँ…माँ-माँ संवेदना है, भावना है अहसास
हैमाँ…माँ जीवन के फूलों में खुशबू का वास है,
माँ…माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है,
माँ…माँ मरूथल में नदी या मीठा सा झरना है,
माँ…माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है,
माँ…माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है,
माँ…माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ…माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है,
माँ…माँ झुलसते दिलों में कोयल की बोली है,
माँ…माँ मेहँदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है,
माँ…माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ…माँ परामत्मा की स्वयँ एक गवाही है,
माँ…माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ…माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,
माँ…माँ अनुष्ठान है, जीवन का हवन है,
माँ…माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,
माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कधों का नाम है,
माँ…माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,
माँ…माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ…माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,
माँ…माँ चुल्हा-धुंआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ…माँ ज़िंदगी की कडवाहट में अमृत का प्याला है,

माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है,
माँ बिना इस सृष्टी की कलप्ना अधूरी है,
तो माँ की ये कथा अनादि है,ये अध्याय nahinहै ……
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
तो मैं कला की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
और दुनिया की सभी माताओं को प्रणाम करता हूँ.

माँ संवेदना है तो पिता क्या है?


पिता…पिता जीवन है, सम्बल है, शक्ति है,
पिता…पिता सृष्टी मे निर्माण की अभिव्यक्ती है,
पिता अँगुली पकडे बच्चे का सहारा है,
पिता कभी कुछ खट्टा कभी खारा है,


पिता…पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है,

पिता…पिता धौंस से chalane वाला प्रेम का प्रशासन है,
पिता…पिता रोटी है, कपडा है, मकान है,
पिता…पिता छोटे से परिंदे का बडा आसमान है,


पिता…पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,

पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,

पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं,
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है,


पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ती है,
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिती की भक्ती है,

पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ती है,
पिता…पिता रक्त निगले हुए संस्कारों की मूर्ती है,

पिता…पिता एक जीवन को जीवन का दान है,
पिता…पिता दुनिया दिखाने का एहसान है,

पिता…पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,


पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,तो

पिता से बडा तुम अपना नाम करो,
पिता का अपमान नहीं उनपर अभिमान करो,


क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नहीं सकता,

और ईश्वर भी इनके आशिषों को काट नहीं सकता,
विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है,


विश्व में किसी भी तिर्थ की यात्रा व्यर्थ हैं,

यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं,


वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,

क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते

हैंक्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते

पापा कहीं मुझे मार तो नहीं देंगे?


मम्मी, पापा अभी तक क्यों नहीं आये?

मम्मी, पापा का नाश्ता बन गया क्या?

मम्मी, आप पापा से क्यों झगडती हो?

मम्मी, पापा आज मेरे लिये क्या लाये?

मम्मी, पापा सो गये क्या?

मम्मी, पापा मुझे प्यार तो करते हैं ना?

मम्मी,

मम्मी, एक आखरी सवाल……

पापा कहीं मुझे मार तो नहीं देंगे?

बोलो ना मम्मी…
इतने सारे सवाल करती है,

माँ के पेट से……

अ-जन्मी बेटी.
और माँ केवल अंतिम सवाल का ही उत्तर दे पाती है,

हाँ… शायद हाँ…

Source : Blog- यह भी खूब रही।

अब माँ के दूध का भी होगा कारोबार


अब माँ के दूध का भी होगा कारोबार

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माँ का दूध शिशु के लिए अनमोल होता है
अमरीका की एक कंपनी अब माँ के दूध का कारोबार करने के लिए क़दम बढ़ा रही है जिससे अस्पतालों में उन बच्चों का इलाज किया जा सकेगा जिनकी माताएँ अपने शिशुओं को अपना दूध नहीं पिला सकतीं.
प्रोलैक्टा बायोसाइंसेज़ नाम की यह छोटी सी कंपनी लॉस एंजल्स के बाहरी इलाक़े में स्थित है. यह कंपनी माँ के दूध पर आधारित इलाज को विकसित करने के लिए शोध भी करना चाहती है.
माँ के दूध को शिशु के लिए अमृत समान माना जाता है यानी उसमें खनिज, पाचक तत्व और एंटीबोडीज़ सहित वे सभी तत्व मौजूद होते हैं जो शिशु के जीवन के लिए अनमोल होते हैं.
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि कंपनी के इस फ़ैसले से बहुत सी माताओं पर अपना दूध बेचने के लिए दबाव बढ़ेगा.
अभी तक अमरीका और ब्रिटेन में कुछ गिने-चुने ऐसे दूध बैंक हैं जो स्थानीय स्तर पर माँ का दूध इकट्ठा करते हैं और उन बच्चों के लिए आपूर्ति करते हैं जिनका जन्म समय से पहले होता है और उनकी माँ को अपना दूध पिलाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.
लेकिन प्रोलैक्टा कंपनी की योजना है कि वह माँ के दूध के बैंकों और अस्पतालों से दूध ख़रीदकर उसे पॉश्चॉराइज़ करने के बाद अस्पतालों को वापस बेचेगी.
कंपनी माँ के दूध को उन बच्चों के लिए भी आपूर्ति करने की योजना बना रही है जिन्हें दिल की बीमारियाँ होती हैं, जिनका ऑपरेशन किया जाता है और जिन्हें संक्रमण का ख़तरा होता है.
कंपनी माँ के दूध में मौजूद तत्वों के बारे में शोध भी करना चाहती है ताकि नवजात शिशुओं में आम बीमारियों का इलाज माँ के दूध से किया जा सके.
अलग-अलग राय
प्रोलैक्टा की मुख्य कार्यकारी अधिकारी एलेना मीडो का कहना था, "जहाँ तक मेरी जानकारी है यह दुनिया भर में इस तरह की पहली और एक मात्र सेवा होगी."
अदभुत नुस्ख़ा
माँ का दूध एक अदभुत नुस्ख़ा है. क्यों ना हम ऐसी सुविधा क़ायम करें जहाँ बीमारी से लड़ने वाले इसमें मौजूद तत्वों को सहेजा जा सके.

प्रोलैक्टा कंपनी की प्रमुख
मीडो का कहना था, "माँ का दूध एक अदभुत नुस्ख़ा है. क्यों ना हम ऐसी सुविधा क़ायम करें जहाँ बीमारी से लड़ने वाले इसमें मौजूद तत्वों को सहेजा जा सके."
लेकिन उत्तरी अमरीका में मानव दूध बैंकिंग एसोसिएशन ने माँ के दूध की "ख़रीद-फ़रोख़्त" पर सवाल उठाए हैं.
एसोसिएशन का कहना है कि माँ के दूध के साथ व्यावसायिक पहलू जुड़ने के साथ माताओं पर अपना दूध बेचने के लिए दबाव बढ़ेगा और वे शायद इस बात की अनदेखी करने लगें कि उनके अपने बच्चों को इस दूध की ज़रूरत होती है.
ब्रिटेन के नेशनल चाइल्डबर्थ ट्रस्ट की रोज़ी डोड्स का कहना है कि वह इन चिंताओं को समझती हैं.
लेकिन उन्होंने कहा, "ज़रूरत इस बात की है कि और ज़्यादा माताएँ अपना दूध उपलब्ध कराने के लिए आगे आएँ. इस पूरे मुद्दे को और ज़्यादा अहमियत दिए जाने की ज़रूरत है. मैं सिक्के के दोनों पहलू देख सकती हूँ."
उनका कहना था, "हालाँकि मैं नहीं समझती कि यह योजना ब्रिटेन में कामयाब होगी क्योंकि यह अस्पतालों के लिए बहुत ख़र्चे वाली साबित होगी."
साभार : BBCHindi शनिवार, 06 अगस्त, 2005

बूढे माँ-बाप : कर्ज या फर्ज

बूढे माँ-बाप : कर्ज या फर्ज
उदास चेहरे की झुर्रियों को बरसती आँखे सुना रही है अपने सपने को सच करने ज़िगर का टुकडा शहर गया हैं.जी हाँ,यह त्रासदी हैं उन बूढे माता-पिताओं की जो बडे अरमानों से अपने जिगर के टुकडों को शहरों में पढने के लिये शहर तो भेज देते हैं उनके सपनों को पूरा करने के लिये,लेकिन बाद में यही बेटे पूरी तरह से माता-पिता के द्वारा किये गये बलिदानों को भूल जाते हैं और उनकी कोई खैर खबर नहीं लेते हैं.शहरी चमक-दमक और बंगले और कार के बीच अपने माता-पिता द्वारा दिये गये संस्कारों को भूल जाते हैं.उनके हाल पर उनको छोड देते हैं.भारतीय परिप्रेक्ष्य में ओल्ड एज होम की कल्पना करना आज से कुछ दिन पहले तक संभव नही था.लेकिन बदलती परिस्थितियों में इनकी संख्या में बढोत्तरी अपने सामाजिक स्थिति की बदहाल तस्वीर को हमारे सामने रखती हैं.जिंदगी भर हमारे लिये अपना सर्वस्व न्योछवर करने वाले अभिभावकों को उनके जीवन काल की संध्या में हम आश्रय न दे सके यह कितनी शर्म की बात हैं.एकल परिवार की अवधारणा को शहरी संस्कृति में ज्यादा तवज्जों दी जाती है,जिस कारण बच्चों को दादा-दादी या संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों का प्यार नही मिल पाता हैं.वे रिश्तों को ना जानते हैं ना ही उतनी अहमियत देते हैं.आने वाले समय में वे भी माता-पिता के साथ वही व्यवहार करने से नही चूकते,जो उनके माता-पिता अपने माता-पिता के साथ किये होते हैं.भारत सरकार भी संसद में ऐसा कानून लाने की सोच रही हैं,जिससे बूढे माँ-बाप अपने गुजारे के लिये अपना हक माँग सकते हैं.जब कानून के तहत वसीयत पर बेटे अपना हिस्सा माँग सकते है तो कानूनन ही सही अब बूढे माँ-बाप अपने गुजारे के लिये हक से अपने बेटों से पैसा तो माँग ही सकते हैं.लेकिन ऐसी स्थिति आना कितनी शर्म की बात हैं,जीते-जी कोई माँ-बाप के सामने ऐसी स्थिति आती हैं तो यह तो उनके मरने के समान हैं.बेटों का फर्ज बनता है कि वे अपने बूढे मां-बाप की सेवा तन मन से करे.भारतीय संस्कृति में ऐसी स्थिति का आना निश्चय ही शर्म की बात हैं.अपने सपनों को साकार करने के चक्कर में अपने जडों को भूल जाये,ये कहाँ की होशियारी हैं.हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हमें भी बूढापे से गुजरना हैं,अगर कल वही स्थिति का सामना करना पडे तो यह भी बडी शर्म की बात होगी.

प्रस्तुतकर्ता : नितेश कुमार गोयनका पर

Friday, February 22, 2008

माँ भावना की मूर्ति है !

-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------
माता-पिता की छाया में ही जीवन सँवरता है। माता-पिता, जो निःस्वार्थ भावना की मूर्ति हैं, वे संतान को ममता, त्याग, परोपकार, स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं।माता और पिता इन दो स्तंभों पर भारतीय संस्कृति मजबूती से स्थिर है। माता-पिता भारतीय संस्कृति के दो ध्रुव हैं। माँ शब्द ही इस जगत का सबसे सुंदर शब्द है। इसमें क्या नहीं है? वात्सल्य, माया, अपनापन, स्नेह, आकाश के समान विशाल मन, सागर समान अंतःकरण, इन सबका संगम ही है माँ। न जाने कितने कवियों, साहित्यकारों ने माँ के लिए न जाने कितना लिखा होगा। लेकिन माँ के मन की विशालता, अंतःकरण की करुणा मापना आसान नहीं है।परमेश्वर की निश्छल भक्ति का अर्थ ही माँ है। ईश्वर का रूप कैसा है, यह माँ का रूप देखकर जाना जा सकता है। ईश्वर के असंख्य रूप माँ की आँखों में झलकते हैं। संतान अगर माँ की आँखों के तारे होते हैं, तो माँ भी उनकी प्रेरणा रहती है। कुपुत्र अनेक जन्मते हैं, पर कुमाता मिलना मुश्किल है। वेद वाक्य के अनुसार प्रथम नमस्कार माँ को करना चाहिए। सारे जग की सर्वसंपन्न, सर्वमांगल्य, सारी शुचिता फीकी पड़ जाती है माँ की महत्ता के सामने। सारे संसार का प्रेम माँ रूपी शब्द में व्यक्त कर सकते हैं। जन्मजात दृष्टिहीन संतान को भी माँ उतनी ही ममता से बड़ा करती है। दृष्टिहीन संतान अपनी दृष्टिहीनता से ज्यादा इस बात पर अपनी दुर्दशा व्यक्त करता है कि उसका लालन-पोषण करने वाली माँ कैसी है, वह देख नहीं सकता, व्यक्त कर नहीं सकता। माँ को देखने के लिए भी दृष्टि चाहिए होती है। आँखें होते हुए भी माँ को न देख सकने वाले बहुतायत में होते हैं। ईश्वर का दिव्य स्वरूप एक बार देख सकते हैं, मगर माँ के विशाल मन की थाह लेने के लिए बड़ी दिव्य दृष्टि लगती है। माँ यानी ईश्वर द्वारा मानव को दिया हुआ अनमोल उपहार। दूसरा नमस्कार यानी पितृदेव। पिता सही अर्थों में भाग्य-विधाता रहता है। जीवन को योग्य दिशा दिखलाने वाला महत्वपूर्ण कार्य वह सतत करता है। विशेषता यह कि पिता पर कविताएँ कम ही लिखी गईं। कारण कुछ भी रहे हों, मगर कविता की चौखट में पितृकर्तव्य अधूरे ही रहे। कभी गंभीर, कभी हँसमुख, मन ही मन स्थिति को समझकर पारिवारिक संकटों से जूझने वाले पिता क्या और कितना सहन करते होंगे, इसकी कल्पना करना आसान नहीं है। माता-पिता व संतान का नाता पवित्र है। माता-पिता को ही प्रथम गुरु समझा जाता है। माता-पिता ही जीवन का मार्ग दिखलाते हैं। माता-पिता के अनंत उपकार संतान पर रहते हैं। जग में सब कुछ दोबारा मिल जाता है, लेकिन माता-पिता नहीं मिलते। आज आधुनिक युग का जो चित्र दिखाई दे रहा है, उसमें इस महान पवित्र संबंध की अवहेलना होती दिखाई दे रही है। कहते हैं व्यक्ति जिंदा रहता है, तब तक उसको महत्वहीन समझा जाता है, उसके जाने के पश्चात ही उसका मूल्य समझ में आता है।कालचक्र घूम रहा है, फिर भी माता-पिता का संबंध अभंग है। संतान के लिए उनके ऋण कभी पूरे नहीं होते। अतः संतान को उनकी मनोभाव से सेवा करनी चाहिए। आज आधुनिकता के अंधे प्रवाह में बहकर माता-पिता को बोझ माना जाने लगा है। यहाँ तक आदेशित किया जाने लगा है कि साथ-साथ रहना है तो सब धन, संपत्ति उनके (संतान)नाम कर दें या फिर अलग रहें। वृद्धाश्रम या इसी प्रकार की दूसरी व्यवस्था का क्या अर्थ है? वह भी एक जमाना था, जब श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने अपने अंधे माता-पिता की सेवा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। आधुनिक श्रवण कुमार आधुनिकता के आकर्षण में धन कमाने की अंधीदौड़ में वृद्ध माता-पिता को जीवन के अंतिम दौर में अकेले रहने को विवश कर रहे हैं। माता-पिता की छाया में ही जीवन सँवरता है। माता-पिता, जो निःस्वार्थ भावना की मूर्ति हैं, वे संतान को ममता, त्याग, परोपकार, स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं। माता-पिता की सेवा और उनकी आज्ञा पालन से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। पिता-पुत्र संबंधों का सबसे उदात्त स्वरूप राम और दशरथ के उदाहरण से मिलता है। पिता की आज्ञा को सर्वोच्च कर्तव्य मानना और उसके लिए स्वयं के हित और सुख का बलिदान कर देना राम के गुणों में सबसे बड़ा गुण माना जाता है और इस आदर्श ने करोड़ों भारतीयों को इस मर्यादा के पालन की प्रेरणा दी है।

जब से गई है माँ मेरी रोया नहीं

-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------


जब से गई है माँ मेरी रोया नहीं कवि कुलवंत सिंह
जब से गई है माँ मेरी रोया नहींबोझिल हैं पलकें फिर भी मैं सोया नहींऐसा नहीं आँखे मेरी नम हुई न होंआँचल नहीं था पास फिर रोया नहींसाया उठा अपनों का मेरे सर से जबसपनों की दुनिया में कभी खोया नहींचाहत है दुनिया में सभी कुछ पाने कीपायेगा तूँ वह कैसे जो बोया नहींइंसा है रखता साफ तन हर दिन नहाबीतें हैं बरसों मन कभी धोया नहीं

जन्म दे मुझे भी माँ

-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------

जन्म दे मुझे भी माँ : गुरवरन सिंह


जन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,मुझे अपनी कोख में न मारतेरे दर्शन करना चाहती हूँ माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,लड़की हूँ तो क्या हुआ माँ, ख्याल मैं भी तेरा रखूँगीपढ़-लिखकर मैं भी माँ, तेरा नाम चमकाऊँगीअगर तू कहे तो मैं तेरा राज-दुलारा बनकर दिखाऊँगीतेरी कोख में कर रही हूँ इंतज़ार माँ, इस संसार में मुझे भी ले आजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,लोग लड़कों के जन्म पर खुश होते हैं,तू मुझ लड़की को जन्म देकर खुशी मनासंसार को तू आज बता दे माँ कि –मैं हूँ लड़कों से बढ़कर तेरी लड़की माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,तेरी गोद में सोना चाहती हूँ, तेरी लोरियाँ सुनना चाहती हूँ माँप्यार की अनमोल परिभाषा मैं तुझ से सीखना चाहती हूँ माँदुनिया में मुझे माँ तू ही ला सकती हैमेरा तो भगवान है तू माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,तेरे जो सपने हैं, उनको मैं पूरा करूँगी माँ,जो तू कहे वो मैं करूँगी माँ,न मैं माँगूगी महँगे कपड़े,न माँगूगी कुछ औरमाँगूगी तो बहुत सारा तेरा प्यार, माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,मेरी शादी के खर्च से परेशान न हो माँ,मैं खूब मेहनत करूँगी और पैसा कमाऊँगीतुझ पर कभी बोझ नहीं बनूँगी माँ, दहेज की फिक्र न कर, मैं हूँ न तेरी बेटी माँक्योंकि लड़की है आज लड़कों के बराबर माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ
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माँ की वंदना

-------------------- हे माँ ! तू नहीं तो ये जहां कहाँ ? ----------

मानस मंथन – एक मार्मिक अभिव्यक्तिसमीक्षक : कपिल अनिरुद्धरचयिता : शशि पाधा

धरती माँ की वन्दना, राष्ट्र प्रेम एवं भारतीयता को ले कर बहुत ही उत्कृष्ट रचनायें की गई हैं परन्तु अपनी धरा से प्रेम करने वाला, राष्ट्र गौरव से ओत-प्रोत व्यक्ति यदि अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि से दूर हो प्रवासी कहलाने को विवश हो जाता है तो उस के भीतर का दर्द, माँ भारती से बिछुड़ने की पीड़ा कैसे अभिव्यक्ति पाती है, बहुत कम देखने को मिला है। श्रीमती शशि पाधा जी की कविता ’प्रवासी’ इसी भाव को अभिव्यक्त करती है। वे लिखती हैं –

“मैं प्रवासी हुई सखिहै देस मेरा अति दूरयहाँ न मिलती पीपल छैयान
बाबुल की गलियाँयहाँ न वो चौपाल चोबारेन चम्पा न कलियाँ”

वैसा ही दर्द उनकी कविता ’स्मृतियाँ’ एवं ’माँ का आँगन’ में भी दिखाई देता है। फिर संवेदनशील होना ही तो कवि हृदय का पहला लक्षण है। बतौर सुमित्रानन्दन पंत –
“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान”
१३१ पन्नों के अपने इस काव्य संग्रह को कवयित्री ने ’भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं हिन्दी भाषा की समृद्धि में संलग्न प्रावासी भारतीयों’ को समर्पित किया है। पुस्तक का नाम पुस्तक का नाम मानस मंथन प्रतीकात्मक है । पुराणों के अनुसार जब सागर मंथन हुआ था तो मंद्राचल पर्वत की मथनी तथा शेषनाग की रस्सी द्वारा ही देवताओं एवं दानवों ने सागर को मथा था। एक रचनाकार जब अपनी चेतना की मथनी ले अपने अन्तरमन को जिज्ञासा की रस्सियों द्वारा मथता है तो उसे जिन अमूल्य बिम्बों, प्रतीकों, संकेतों इत्यादि की प्राप्ति होती है उसे वह दूसरों को सौंपता जाता है। स्वयं विष पी दूसरों को अमृतपान करवाने वाला रचनाकार ही तो शिव कहलाता है। मानस मंथन भी कवयित्री शशि पाधा जी के अन्तरमन में हुए मंथन से प्राप्त रचनाओं का अमृतपान हमें करवाता है। कवयित्री स्वयं लिखती है – “जीवन के राग-विराग, हर्ष-शोक एवं मानवीय रिश्तों की उहा-पोह ने सदैव मेरे संवेदनशील हृदय में अनगिन प्रश्नों का जाल बुना है। मेरा जिज्ञासु मन इस चराचर जगत में उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढता रहता है। जीवन मीमाँसा की इस भावना से प्रेरित हो ’मानस मंथन’ का बीज अंकुरित हुआ।“
मानस मंथन के कैनवास पर रचनाकार ने शब्दों की तूलिका से जीवन के अनेकानेक रंगों को उभारा है। कहीं वह जीवन को पूर्णता से जीने का मूलमंत्र देती नज़र आती है तो कहीं भ्रूण हत्या पर अपना आक्रोश व्यक्त करती है। कहीं वह प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण करती है तो किसी अन्य रचना में त्याग एवं बलिदान का रंग बिखेरती दिखाई देती है। इन सभी रंगों में से जो रंग सबसे अधिक उभरा हुआ नज़र आता है वह अपने देश की धरती, देश प्रेम का रंग है।
ललित निबन्ध लोभ और प्रीति में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं –
“जन्म भूमि का प्रेम, स्वदेश प्रेम यदि वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो स्थान के लोभ के अतिरिक्त ऒर कुछ नहीं है। इस लोभ के लक्षणों से शून्य देशप्रेम कोरी बकवाद या फैशन के लिये गढ़ा हुआ शब्द है। यदि किसी को अपने देश से प्रेम होगा तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु-पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा। सबको वह चाह भरी दृष्टि से देखेगा। सबको सुध कर के वह विदेश में आँसू बहायेगा।“आचर्य शुक्ल जी का यह कथन कवयित्री शशि पाधा पर पूरा उतरता है। वह तो अपने वतन की गलियाँ, कलियाँ, मोर, चकोर, गंगा-यमुना, फाल्गुन – होली यह सब देखने को तड़प उठती है। और फिर देश प्रेम की यह भाव धारा अश्रुधारा का रूप ले लेती है।उनकी कविता ’प्रवासी वेदना’ तथा ’कैसे भेजूँ पाती’ को पढ़ कर महाकवि कालिदास के मेघदूत की याद ताज़ा हो जाती है। जिस में यक्ष बादलों को अपना प्रेम दूत बना अपनी प्रियतमा को संदेशा देने को कहता है। कवयित्री उड़ती आई इक बदली से अपने घर का हाल-चाल पूछती है। इस कविता की यह पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी हैं।
“उड़ते-उड़ते क्या तू बदलीगंगा मैय्या से मिल आईदेव नदी का पावन जल क्याअपने आँचल में भर लाईमन्दिर की घंटी की गूँजेंकानों में रस भरती होंगीचरणामृत की पावन बूंदेंतन मन शीतल करती होंगी”
किसी भी कवि अथवा कवयित्री की कविताओं को छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रतीकवाद इत्यादि वर्गों में वर्गीकृत करना, उसके साथ अन्याय करना है। वास्तव में जब हम अपना आलोचना धर्म ठीक ढंग से नहीं निभा पाते हैं तो हम मात्र उन्हें विभिन्न वादों-प्रतिवादों में वर्गीकृत कर के ही अपनी विद्धुता का परिचय दे देना चाहते हैं। यह सत्य है कि शशि पाधा जी की कुछ कविताओं को पढ़ बरबस महादेवी वर्मा जी की याद ताज़ा हो जाती है परन्तु कवयित्री की प्रत्येक अनुभूति उसकी निजि है। उसने अपने लिखे प्रत्येक शब्द को स्वयं अनुभूत किया है। मानस मंथन का अक्षर-अक्षर उस ने जिया है। यही उन की सबसे बड़ी विशेषता है।उन की बहुत सी कवितायें उस अज्ञात प्रेमी के लिये हैं जो कभी कवयित्री के मन-वीणा क तार छेड़ उन्हें चैतन्य कर देता है तो कभी अपने स्नेहिल स्पर्श से उन्हें रोमांचित कर देता है। उन की कवितायें अदृष्य, जिज्ञासा एवं पथिक अपने उसी अज्ञात प्रेमी को समर्पित हैं।
अपने समय के बहुत से रचनाकारों, चिन्तकों एवं सन्त जनों ने प्रेम क्या है हमें बतलाया है। अपनी कविता ’प्रेम’ में कवयित्री भी प्रेम को परिभाषित करती हुई कहती है –
-नयन में जले दीप साअक्षर में पले गीत साचातकी की प्रीत साश्वास में संगीत सासजे जो वही प्रेम है।
ऊपरी तौर पर पढ़ने वाले किसी पाठक को यह भी भ्रम हो सकता है कि शशि जी अपने निजि सुखों एवं दुखों को शब्दबद्ध कर रही हैं। परन्तु ऐसा कहीं नहीं है। वह तो सबके सुख में अपना सुख देखती है। सबक दुख ही उसका दुख है। वह तो वसुन्धरा को रक्तरंजित होते देख अनायास ही कह उठती है –
”हरित धरा की ओढ़नी“रक्त रंजित मत करोखेलना है रंग से तोप्रेम का ही रंग भरो”
कवयित्री शशि पाधा मात्र प्रेम निवेदन करती ही नज़र नहीं आती। वह नारी को उसका खोया गौरव दिलाने को भी कटिबद्ध नज़र आती है। उसक लिए नारी अबला न हो कर सबला है, देव पूजित है, वत्सला है, शक्ति रूपा है। दूसरी ओर नारी स्वतन्त्रता के नाम पर मर्यादा भंग करने के विरुद्ध भी उसका स्वर सुनाई देता है। सांकेतिक ढंग से अपनी कवित ’अग्निरेखा’ में मर्यादा की रेखा लाँघने वाली नारी से वह पूछती है –
“किस दृढ़ता से लाँघी तूने।संस्कारों की अग्नि रेखा।
देहरी पर कुछ ठिठकी होगी।छूटा क्या, क्या मुड़ के देखा।“
’अजन्मा शैशव’ कविता में वह हमारे सामाजिक कलंक ’भ्रूण हत्या’ की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं। अजन्मा शिशु ही अपनी हत्या के लिये माँ से प्रश्न कर हमारी चेतना को झंझोड़ता है।
कवयित्री ने छोटे-छोटे बिम्बों, प्रतीकों एवं संकेतों के माध्यम से अपनी बात कही है। कहीं वह बादलों का सांकेतिक प्रयोग करती नज़र आती है तो कहीं अन्य कविता ’ताप’ में वह नारी को सुकोमला एवं निर्बला समझने वालों पर सांकेतिक ढंग से प्रहार करती है। जब वह अपने अतीत की स्मृतियों में खोई हुई होती है, जब वह अपने प्रेममय, गौरवमय अतीत को याद करती है तो दुःखों और निराशाओं से ही घिर नहीं जाती, बल्कि उसके भीतर का दार्शनिक उसे अतीत के प्रेम एवं सौहार्द से वर्तमान के क्षणों को प्रेममय एवं आनन्दमय बनाने का संदेश देता है। वह तो अपने अश्रुओं को भी यह कह कर उदात्त बना देती है –
नील गगन भी कभी-कभी।किरणों की लौ खो देता है।
आहत होगा हृदय तभी तोबरस-बरस यूँ रो लेता है।
मैं भी रो लूँ आज क्योंकिकुछ तो है अधिकार मुझे।

हमारे प्रदेश के प्रख्यात साहित्यकार एवं चिंतक डॉ. ओ.पी. शर्मा ’सारथी’ जी लिखते हैं – “काव्य कला होते हुए प्राण है और प्राण होते हुए कला है। और सबसे बड़ी बात कि जिस समाज में काव्य कला को पूर्ण महत्व दिया जाता है वहाँ पर लय-ताल और संगीत का साम्राज्य रहता है। काय का सारा ढांचा लय-ताल पर आधारित है। यह कभी भी संभव नहीं है और यह संभावना भी नहीं की जा सकती कि व्यक्ति संगीत के तीन गुणों लय-ताल तथा स्वर को समझे बिना काव्यकार हो जाये। यदि उसे काव्यकार होना है तो लयकार और स्वरकार होना ही होगा।“श्रीमती शशि पाधा जी कविताओं में काव्यत्मकता एवं लयात्मकता का उचित तालमेल नज़र आता है। वह तो शब्दलहरियों के साथ स्वरलहरियों को मिलाने की बात करती हुई लिखती हैं –
आओ प्यार का साज़ बजा लें।
सात-सुरों की लहरी गूँजेतार से तार मिला लें।

देश से हज़ारों मील दूर बसने वाली इस कवयित्री के प्रत्येक शब्द में भारत की मिट्टी, संस्कृति एवं संस्कारों की सुगन्ध आती है। हमारे डुग्गर प्रदेश में जन्मी इस कवयित्री की प्रेरणा इन के पति मेजर जनरल केशव पाधा हैं, जो हमारे गौरव हैं। मेरी कामना है कि हम एक सेनानई की प्ररेणाशक्ति से राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा ले यदि माँ भारती की सेवा में जुट जायें तभी इस प्रेममयी कवयित्री की कविताओं को पढ़ने और सराहने का हमारा ध्येय पूर्ण होगा।
Sourse : Manas Manthan (Shashi Padha)

Saturday, February 16, 2008

माँ की किरणों से रोशन था वो

माँ का अहसान बच्चों पर है, उसको ध्यान में रखते हुए श्री बोधराज जफर ने फरमाया है – “ जिस व्याक्ति के सिर पर माँ-बाप लका साया है उंनको भगवान की भक्ति की भी कोई जरुरत नहीं, क्योंकि आनंद स्वरूप माँ-बाप बोलते-चालते और जीते-जागते भगवान के रूप में इनके घर में मौजूद है!” वैसे तो इंसान माँ-बाप के एहसानों का बदला सात जन्म में भी नहीं उतार सकता, क्योंकि माँ-बाप ने ही बच्चों को संसार की हर आँधी, तूफान , और गर्द-गूबार से बचाकर उसका पालन-पोषण किया है, बडा किया, शिक्षा-दिक्षा दिलाई और बच्चे के जवानी में कदम रखते ही उसका विवाह भी किया !
अपने खून-पसिने की कमाई को नि:संकोच सीर्फ अपने बच्चे के किये पानी की तरह बहा दिया और बच्चे की प्रसन्नता को ध्यान में रखते हुए उसके भविष्य का हर हालत और हर कीमत पर ध्यान रखा. बुजुर्गों ने सच ही कहा है :-
“ सोने की सिल गले , आदम का बच्चा पले ! “
परंतु माँ का चरित्र तो और भी सुन्दर और महत्तवपुर्ण है जिसने पूरे नौ मास बच्चे को अपने पेट में रखकर और सख्त से सख्त तकलीफ सहन करके और कई सैकडो परहेज करके जिन्दगी और मौत के मध्य लटककर उसे जन्म दिया , सख्त सर्दी की रातों मेँ बच्चों के पेशाब से तर बिस्तर को बदल-बदलकर स्वयं पेशाब से तर बिस्तर पर सोना और बच्चे को खुश्क बिस्तर पर सुलाना और ढाई तीन वर्ष तक मल-मूत्र से उसको साफ करना क्या महत्त्व नहीं रखता.
वह चेहरा क्या, सूरज था? खुदा था या पैगम्बर था ?
वह चेहरा जिससे बढ्कर खूबसूरत कोई चेहरा हो ही नहीं सकता,
कि वह एक माँ का चेहरा था !
जो अपने दिल के ख्वाबों , प्यार की किरणों से रोशन था !!

` साभार : Gruhsthgeeta, Colkata `

Thursday, February 14, 2008

स्वामी रामसुखदासजी महाराज : हे माँ ...

वर्तमान में नारी-जाति का महान तिरस्कार घोर अपमान किया जा रहा है, नारी के महान मातररूप के नष्ट करके उसको मात्र भोग्या स्त्री का रूप दिया जा रहा है, भोग्या स्त्री वेश्या होती है जितना आदर माता का है, उतना आदर स्त्री (भोग्या) का नहीं है, परन्तु जो स्त्री को भोग्या मानते है, स्त्री के गुलाम है वे भोगी पुरुष इस बात को क्या समझे ? समझ ही नहीं सकते ! विवाह माता बनने के लिए किया जाता है! भोग्या बनने के लिये नहीं, संतान पैदा करने के किये ही पिता कन्यादान करता है! और संतान पैदा करने के लिये ही वरपक्ष कन्यादान स्वीकार करता है. परंतु आज नारी को माँ बनने से रोका जा रहा है और उसको केवल भोग्या बनाया जा रहा है. यह नारी -जाति का कितना महान तिरस्कार है ? वास्तव में मातरी-शक्ति है, वह स्त्री और पुरुष दोनों की जननी है, पत्नी तो केवल पुरुष की ही बनती है, पर माँ पुरुष की भी बनती है और स्त्री की भी. पुरुष अच्छा होता है तो उसकी महिमा अपने कुल में ही होती है पर स्त्री अच्छी होती है तो उसकी पीहर और ससुराल दोनो पक्षों में महिमा होती है. राजा जनकजी सीताजी से कहते है :
"पुत्री पबित्र किए कुल दोऊ"
आजकल स्त्रियों को पुरुष के समान अधिकार देने की बात कही जाती है. पर शास्त्रों नें माता के रूप में स्त्री को पुरुष की अपेक्षा विशेष अधिकार दिया है : " सहस्त्रं तु पितरन्माता गौरवेणातिरिच्यते !! " माता का दर्जा पिता के दर्जे से हजार गुणा अधिक माना गया है. "
सबके द्वारा सन्यासी को भी माता की प्रयत्नपूर्वक वन्दना करनी चाहिये . "माँ" शब्द कहने से जो भाव पैदा होता है , वैसा भाव "स्त्री" कहने से नहीं होता. इसलिये श्रीशंकराचार्यजी महाराज भगवान गोविन्द को भी ''माँ" कहकर पुकारते है. वन्दे मातरम में भी माँ की वन्दना की गई है. हिन्दू धर्म में माता-शक्ति की उपासना का विशेष महत्व है. ईश्वरकोटि के पाँच देवताओं में भी माँ दुर्गा (भगवती) का स्थान है. देवी भागवत , दुर्गासप्तशती आदि अनेक ग्रंथ माँ शक्ति पर ही रचे गये है. जगत की सम्पूर्ण स्त्रियों को भगवती ( माँ) शक्ति का ही रूप माना है.
"विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: ! स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु !!"
संसार के हित के लिये माँ-शक्ति ने बहुत काम किया है. रक्त-बीज आदि राक्षसों का सहांर भी मात शक्ति ने ही किया है. मात-शक्ति ने ही हमारी हिन्दू सभ्यता की रक्षा की है. आज भी प्रत्यक्ष देखने में आता है कि हमारे व्रत- त्यौहार, रीति-रिवाज, माता-पिता के श्राद्ध आदि की जानकारी जितनी स्त्रियों को रहती है, उतनी पुरुषों को नहीं रहती. पुरुष अपने कुल की बात भी भूल जाते है, पर स्त्रियाँ दूसरे कुल के होने पर भी उंनको बताती है कि अमुक दिन आपकी माता या पिता का श्राद्ध है, आदि. मन्दिरों में, कथा-कीर्तन में, सत्संग में जितनी स्त्रियाँ जाती है, उतने पुरुष नहीं जाते . कार्तिक- स्नान , व्रत, दान, पूजन, रामायाण आदि का पाठ जितना स्त्रियाँ करती है, उतना पुरुष नहीं करते . तात्पर्य है कि स्त्रियाँ हमारी संस्क्रिति की रक्षा करने वाली है. अगर उनका चरित्र नष्ट हो जायेगा तो संस्क्रिति की रक्षा कैसे होगी ? एक श्लोक आता है :
असंतुस्टा द्विजा नष्टा: संतुष्टश्च महीभुज : !
सलजा गणिका नटा निर्लज्जश्च कुलाग्ना: !!
(चाण्क्य निति. 8/98)
" संतोषहीन ब्राह्मण नष्ट हो जाता है, संतोषी राजा नष्ट हो जाता है. लजावती वेश्या नष्ट हो जाती है और लजाहीन कुलवधु नष्ट हो जाती है अर्थात उसका पतन हो जाता है. वर्तमान में संतति निरोध के क्रत्रिम उपायों के प्रचार-प्रसार से स्त्रियों में लजा , शील, सतित्व,सच्चरित्रता , सदाचरण आदि का नाश हो जाता है. परिणामस्वरूप स्त्रि-जाति केवल भोग्य वस्तु बनती जा रहै है. यदि स्त्रि-जाति का चरित्र नष्ट हो जायेगा तो देश की क्या दशा होगी ? आगे आने वाली पीढी अपने प्रथम गुरु माँ से क्या शिक्षा लेगी ? स्त्री बिगडेगी तो उससे पैदा होने वाले बेटी-बेटा (स्त्री-पुरुष) दोनों बिगडेंगे. अगर स्त्री ठीक रहेगी तो पुरुष के बिगडने पर भी संतान नही बिगडेगी. अत: स्त्रीओं के चरित्र, शील, लजा आदि की रक्षा करना और उनको अपमानित न होने देना मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है !
***** हे माँ ****

Wednesday, February 13, 2008

वात्सल्यमयी माँ

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माँ के प्यार का न है कोई जवाब !
न ही उसकी कोई कीमत और न ही कोई हिसाब !!
माँ की ही वह गोद है जहाँ मानवता पले !
अगर जन्नत है कहीं तो उसके आँचल के तले !!


जिस तरह माता अपने बेटे के लिये हरेक चीज कुर्बान कर देती है, उसी प्रकार बेटे को चाहिये कि
उसके लिये सब कुछ अर्पण कर दें, लेकिन अफसोस कि सांसारिक बाद्शाहों और अमीरों में इसकी नबहूत कम मिसालें मिलती है1 शाहजहाँ बादशाह की तरह और लोगों ने अपने लिये, अपनी औलाद या
चहेती पत्नी के लिये तो बहुत सी यादगारें कायम की लेकिन खास अपनी माता के लिये यादगार कायम करने वाले बहुत ही कम है!


व्रहद धर्म पुराण में महर्षि वेदव्यासजी माता की महिमा इस प्रकार बयान की है -


(1) पुत्र के लिए माता का स्थान पिता से बढकर होता है क्योंकि वह उसे गर्भ म्रें धारण करती है और माता के द्वारा ही उसका पालन-पोषण हुआ है. तीनो लोकों में माता के समान दूसरा कोई नहीं है !
(2) गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं , विष्णु के समान कोई पूजनीय नहीं और माता के समान कोई गुरु नहीं!


इसलिये


भूलकर भी कभी माँ को न सताओ !


माँ की मुस्कान पर अपना सर्वस्व लुटाओ !!


प्रात: उठकर माँ को सदा शीश झुकाओ !


निश्चय ही हर कार्य में सफलता पाओ !!


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मात-पिता प्रभु गुरु चरनो में...


वात्सल्य (VATSALYA-VSS) के बारे में-

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