दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार !!
Sunday, May 11, 2008
माँ जादू है...
Mothers Day SMS
Being a great mother is a very hard role,
Convey my advance happy mothers day to your mother ..
happy mothers day to all show love an affection
Saturday, May 10, 2008
Congratulations for Mother's Day
आपके लिये लाये माँ की ममता से सरोबार ये
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http://www.prashantam.mypodcast.com
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विशेष - माँ की ममता हमें पुकारे भाग 1,2 एवं 3 अवश्य देखें !
Thursday, May 8, 2008
भीनी सी पुरवाई अम्मा
Wednesday, May 7, 2008
वो नाच
मातृत्व
Monday, April 14, 2008
अपने माँ-बाप का दिल ना दुखा (विडियो)
Friday, April 11, 2008
एक ही आँगन में हो
तब माँ जिंदा थी. हम भाई घर से दूर अपनी अपनी दुनियाँ में आजिविका के लिये जूझा करते थे. हमारे अपने परिवार थे. मगर हर होली और दिवाली को हम सबको घर पहुँचना होता था. पूरा परिवार इकठ्ठा होता. मामा मामी, चाचा चाची, मौसा मौसी, बुआ फूफा और उनके बच्चे. घर में एक जश्न सा माहौल होता. पकवान बनते, हँसी मजाक होता. ताश खेले जाते और न जाने क्या क्या. उन चार पाँच दिनों का हर वक्त इंतजार होता. माँ कभी एक भाई के पास रहती, कभी दूसरे के पास मगर अधिकतर वो अपने घर ही रहती. वो उसके सपनों का महल था. उसे उसने अपने पसंद से बनाया और संजोया था. वहाँ वो अपने आपको को रानी महसूस करती थी, उस सामराज्य की सत्ता उसके हाथों थी. उस तीन कमरे के मकान में उसका संसार था, उसका महल था वो, उसका आत्म सम्मान था. हम सब भी उसी महल के इर्द गिर्द अपनी जिंदगी तलाशते.
अधिकतर वो अपने घर ही रहती. वो उसके सपनों का महल था. उसे उसने अपने पसंद से बनाया और संजोया था. वहाँ वो अपने आपको को रानी महसूस करती थी, उस सामराज्य की सत्ता उसके हाथों थी. उस तीन कमरे के मकान में उसका संसार था, उसका महल था, उसका आत्म सम्मान था. हम सब भी उसी महल के इर्द गिर्द अपनी जिंदगी तलाशते.
सारे बचपन के साथी उसी महल की वजह से थे. न वो रहे- न साथी रहे. अजब खिंचाव था. फिर एक दिन खबर आती है कि माँ नहीं रही (इतना अंश मेरे अंतरंग मित्र रामेश्वर सहाय 'नितांत' की कहानी"माँ" से, जो मैने उसे लिखकर दिया था और उसने इसका आभार लिखा था नवभारत दैनिक में) .....................अब इस कविता को देखें:
ऐसे ही हमारे मन-पुल टूटते चले जाते हैं।
अनूप शुक्ला ने कहा…
ऐसे ही हमारे मन-पुल टूटते चले जाते हैं। शायद यही जीवन है।
Tarun ने कहा…
समीर जी, ऐसी सेंटी टाईप पोस्ट मत लिखा कीजिये। आपकी ये पोस्ट बिल्कुल यादें के उस गाने की तरह है.... "यादें याद आती हैं"
Shrish ने कहा…
जीवन के सत्य को दर्शाती एक सुन्दर कविता।
बड़ी मार्मिक कविता है, सुन्दर लेख
मोहिन्दर कुमार ने कहा…
आपने तो सुबह सुबह ही रुला दिया समीर जी.....मां तो मां ही होती है... मुझे भी अपनी स्वर्गवासी मां की याद आ गयी..दिल को छूने वाली रचना
बहुत अच्छा, हृदयस्पर्शी,और बहुत सी बातों की ओर ध्यान दिलाने वाला भी।
बहुत खूब अभिव्यक्ति है सर. दोनों की वो सुध लेती है उनके सुख से सुख लेती है फिर देखा संदेशा आता दोनों को वो साथ रुलाता.
Manish ने कहा…
भावभीनी रचना !
पूनम मिश्रा ने कहा…
दिल को छू लिया.
ranju ने कहा…
samir ji aap ka yah roop bhi bahut hi dil ko chu lene waala hai ..bahut hi sahi laga isko padh ke bahut kuch yaad aa gaya ..
दिल को छू जाने वाली मार्मिक कविता.कुछ ज्यादा ही 'सेंटी' नहीं हो गई?
ज़िन्दगीजो हैएक नदी केकिनारों को जोड़ते पुल की तरहऔर हम लोगमह्ज गुजर जाने के लिये हैंइस पर से.मध्य मेंअगर रुकमिला दिये जायेंप्रावाह में कुछ मोतीतो पड़ता है फ़र्कसिर्फ़अपनी ही अनुभूतियों में.
Dr.Bhawna ने कहा…
माँ का स्थान संसार में कोई नहीं ले सकता। माँ अपने बच्चों का मन पढ लेती है, बिना कहे ही सब समझ जाती है माँ का साथ न हो तो मन की बातें मन में ही रहती हैं कुछ बातें होती हैं जो हम माँ के साथ ही बाँट सकते हैं काश हममें से किसी का, कभी भी, माँ का साथ न छूटा करता पर संसार का नियम हम नहीं बदल सकते, पर काश ऐसा हो पाता!!! आँखे भर आयीं आपकी ये रचना पढकर।
आप सबका बहुत आभार, धन्यवाद.किसी को दुख पहुँचाना या रुलाना मेरा कतई उद्देश्य नहीं था, यह तो जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति मात्र था. मगर साथ मैं बहुत खुश भी हूँ कि आपने रचना को ध्यान से पढ़ा और उसके मर्म को महसूस किया.आप सबका बहुत धन्यवाद.
तरुण भाईमैं इस तरह की पोस्ट कम ही पोस्ट करता हूँ, लिखता जरुर हूँ और आगे से प्रयास करुँगा कि और कम कर दूँ, अब तो मुस्करा दे भाई.. :)
Udan Tashtari ने कहा…
संजय भाई,सच कह रहे हैं. अब लग रहा है ज्यादा ही सेंटी हो गई है. सबके दिल को दुखा कर बड़ी ग्लानी हो रही है.
रजनी भार्गव ने कहा…
कहीं मन के कोने में ये अहसास अभी भी है, आपका लेख पढ़ा तो याद आ गया.बहुत खूब.
Dr.Bhawna ने कहा…
नहीं समीर जी ग्लानि या दिल दुखाने वाली बात क्यों करते हैं ये तो वो हकीकत है जो हम सब जानते हैं यही सृष्टि का नियम है और जब दिल दुखता है तो शब्द भी रोते हैं मैंने भी इस दर्द का महसूस किया है चाहे वो मेरी दादी माँ के या बुआ माँ के जाने हो अन्तिम दर्शन तक नहीं कर पायी दूर रहने के कारण, मैंने भी अपने ब्लॉग में अपना दर्द उकेरा है। आप लिखते रहिये इस बार वादा है आँसू नहीं आयेगे, आये भी तो आपको पता नहीं चलेगा खुश :) :)
मोहिन्दर कुमार ने कहा…
दिल को दुखाने वाली कोई बात नही है समीर जी... रचना वही जो दिल को छू जाये... और कवि वही बनते हैं जो दर्द को महसूस कर सकते है और इस का दूसरों को एहसास भी करा सकते हैं
antarman ने कहा…
समीर भाई,आप के व भाई साहब के साथ मेरे श्र्ध्धा विगलित आँसू,....." माँ जी " के चरणोँ पे ......माँ को बनाया परम कृपालु ईश्वर ने जब उसने सोचा कि " वे हर किसी के पास, किस रुप मेँ रह पाये ? "तब " माँ " का रुप ईश्वर की प्रतिच्छाया बन कर,उद्`भासित हो गया !......श्च्ध्धा सुमन अँजुरि समेटे,-- लावण्या
बहुत भावपूर्ण लिखा है लालाजी....बधाई
DR PRABHAT TANDON ने कहा…
अंत्यत मर्मस्पर्शी कविता , बिल्कुल इस दौर की सच्चाई को दिखाती हुयी।
ऎ माँ ! तेरी सूरत से अलग ...
मेरी माँ
माँ बनकर ये जाना मैंने,
जब नन्हे-नन्हे नाज़ुक हाथों से,
उन आँखों में मेरा बचपन,
जब मीठी-मीठी प्यारी बातें,
उस फैले आँचल में भी,
देखा तुमको सीढ़ी दर सीढ़ी,
कानों में तब माँ की बातें,
आज चले जब मुझे छोड़,
मेरी हर दुआ में शामिल,
Wednesday, April 9, 2008
माँ दरअसल आकाश है!
मां पर लिखना नहीं चाहिए।
माँ के नाम
Tuesday, April 8, 2008
क्षमा करना माँ - घुघूती बासूती द्वारा
साभार: http://ghughutibasuti.blogspot.com/
माँ
ममता टी वी,
हमारी दीदियों की शादी के बाद तो माँ हमारी सबसे अच्छी दोस्त बन गयी थी और बाद मे कुछ सालों के लिए हमारे पापा दिल्ली आ गए थे जिसकी वजह से हमारी और माँ की आपस मे ख़ूब छनती थी। हम दोनो बहुत चाय पीते थे पापा अक्सर कहते थे की तुम लोगों को बस चाय पीने का बहाना चाहिऐ । घर मे है तो चाय चाहिऐ बाहर से घूम कर आये है तो चाय चाहिऐ , बोर हो रहे है तो भी चाय चाहिऐ। सच मे जब् भी कोई नौकर दिख जाता हम लोग चाय की फरमाइश कर देते ।क्या मस्ती भरे दिन थे । हमारे दोस्त तो ये भी कहने लगे थे की अब तो ममता सबको भूल जायेगी क्यूंकि इसके मम्मी-पापा जो दिल्ली आ गए है। और हुआ भी वही जब् भी छुट्टी होती बस बच्चों को गाड़ी मे डाला और पहुंच गए मम्मी के यहाँ।
पर कई बार हम बच्चे ना चाहते हुए भी माँ को दुःख दे जाते है कुछ बातें ऐसी होती है जिन्हे हम चाहकर भी नही भूल पाते है। जैसे यहाँ पर हम जो वाक़या लिख रहे है वो इतना समय बीत जाने पर भी हम भूल नही पाए है क्यूंकि हमे हमेशा ये लगता है कि हमने माँ से इस तरह क्यों बात की ? ये बात दिसम्बर २००४ की है उन दिनों माँ की तबियत कुछ खराब चल रही थी। हमे अंडमान लौटने मे कुछ दस दिन ही बचे थे और इसलिये माँ हमसे मिलने दिल्ली आयी हुई थी। दिल्ली मे हमारी भतीजी भी होस्टल मे रहती थी और चुंकि हम अंडमान मे थे इसलिये हमारा बेटा भी अपने collage के होस्टल मे रहता था । एक दिन की बात है घर मे mutton बना था ,हमारा बेटा और हमारी भतीजी दोनो ही होस्टल से घर आये थे ।
हमारे बेटे को माँसाहारी खाना बहुत पसंद है । हम सभी खाने का मजा ले रहे थे आख़िर माँ ने जो बनाया था वो कहते है ना की माँ के हाथ के बने खाने का स्वाद ही अलग होता है हम लोग लाख कोशिश करे वैसा नही बना सकते। आख़िर मे एक पीस बचा था तो एक पीस क्या रखा जाये ये सोच कर माँ ने बेटे को कहा की तुम ले लो और हमने भतीजी को बोला और बाद मे हमने अपनी भतीजी को वो चावल के साथ खाने के लिए serve किया ये कहते हुए की बेटा तो आजकल घर मे ही है आप फिर बना दीजियेगा पर शायद हमारे कहने का अंदाज कुछ गलत था जो माँ को अच्छा नही लगा और बाद मे वो उठकर अन्दर कमरे मे चली गयी थी । जब् हम अन्दर कमरे मे गए तो हम हैरान रह गए उनको इतना दुःखी देखकर और हमने उनसे माफ़ी मांगी कि आइन्दा हम ऐसा कुछ नही करेंगे जिससे उन्हें दुःख हो। पर आज भी हम इस बात को भुला नही पाते है ,आज भी ये सोच कर हमे अपने पर ग़ुस्सा आता है की हमने माँ से ऐसे क्यों बात की थी।
बिटिया जरा सम्भल के__
सारी दुनिया में आपका पाला भले लोगों से ही पड़े, यह कतई जरूरी नहीं। घर से बाहर या कई बार घर में भी आपकी हँसती, खिलखिलाती बिटिया का सामना बुरी नजरों से हो सकता है। ऐसे में जरूरत होगी उसे संभलकर, सूझबूझ व चतुराई से अपना रास्ता बनाने की। ताकि वह वेश बदले मुखौटे पहने खलनायकों से बच सके।पिछले दिनों एक स्तंभकार की टिप्पणी पढ़ने को मिली, जिसमें उन्होंने लिखा है, 'नारी की देहयष्टि को देखकर मवाली से लेकर महात्मा पुरुष तक के मन, हृदय, शरीर में कैसे-कैसे स्पंदन उठते हैं, इसके बारे में शायद वे नहीं जानतीं क्योंकि वे पुरुष नहीं हैं। पुरुष के हार्मोंस और एंजाइम्स की कार्यशैली के बारे में उन्हें ज्यादा पता नहीं होता।' यह टिप्पणी एक पुरुष की ही उनकी प्रकृति और मानसिकता के बारे में सहज स्वीकारोक्ति है और महिलाओं के लिए चेतावनी देने वाले अलार्म से कम नहीं है। बरसों पहले कॉलेज में जॉब लगने पर मैं खुशी-खुशी अपनी व्याख्याता मैडम से मिलने गई। थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा, 'कैसा माहौल है, कैसे लोग हैं?' मैं नितांत उत्साह से लबरेज थी, अपनी ही रौ में बोली, 'सब लोग बहुत ही अच्छे हैं।' तब उन्होंने जवाब दिया, 'अभी तुम्हेंकई तरह के लोग मिलेंगे।' उनके बोलने का यही मतलब था कि इतनी जल्दी कोई निर्णय मत लो। मैडम की बात सुनकर में असमंजस में पड़ गई और मुझे बुरा भी लगा। लेकिन समय के गुजरने के साथ-साथ मैडम के बोलों का निहितार्थ खुलता गया और मुझे सतर्क भी बनातागया। एक छोटे से वाक्य में उन्होंने कितनी गंभीर बात बोल दी थी। उनका स्पष्ट इशारा कुछ पुरुषों की बुरी मानसिकता तथा उनके व्यवहार की ओर था। हालाँकि सब लोग ऐसे नहीं होते, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं। कभी सज्जनता, मार्गदर्शक, कभी पिता-भाई स्वरूप,कभी निश्चल मैत्री का मुखौटा ओढ़े हुए ये हमारे सामने आते हैं और जब भूल से इस मुखौटे की कोई पर्त हवा में उड़ती है तो इन लोगों का असली चेहरा सामने आ जाता है। परिजनों द्वारा प्रदत्त सुरक्षा तथा स्वच्छता से भरे वातावरण के कारण अधिकांश युवतियाँ ऐसेचेहरों को पहले पहल नहीं समझ पातीं। वे सारी
दुनिया को अपने घर और परिवार जैसा ही समझती हैं। इसी सोच के साथ वे घर से बाहर कदम भी रखती हैं, उन्हें लगता है जैसी वे घर में रहतीं, पहनतीं, आचरण करती हैं, वही बाहर भी कर सकती हैं, पर असल में उन्हें कुछ बिंदुओं पर सावधानी रखनी चाहिए। आइए जानें, क्या हैं ये बिंदु-
परिभाषा से परे है माँ
माँ एक सुखद अनुभूति है। वह एक शीतल आवरण है जो हमारे दुःख, तकलीफ की तपिश को ढँक देती है। उसका होना, हमें जीवन की हर लड़ाई को लड़ने की शक्ति देता रहता है। सच में, शब्दों से परे है माँ की परिभाषा।माँ शब्द के अर्थ को उपमाओं अथवा शब्दों की सीमा में बाँधना संभव नहीं है। इस शब्द की गहराई, विशालता को परिभाषित करना सरल नहीं है क्योंकि इस शब्द में ही संपूर्ण ब्रह्मांड, सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य समाया है। माँ व्यक्ति के जीवन में उसकी प्रथम गुरु होती है, उसे विभिन्ना रूपों-स्वरूपों में पूजा जाता है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में मातृ ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। भारतीय संस्कृति में जननी एवं जन्मभूमि दोनों को ही माँ का स्थान दिया गया है। मानव अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति जन्मभूमि यानी धरती माँ से, तो जीवनदायी आवश्यकता की पूर्ति जननी से करता है। मनुष्य
माँ अनंत शक्तियों की धारणी होती है। इसीलिए उसे ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप मानकर ईश्वर के सदृश्य माना गया है। माँ के समीप रहकर उसकी सेवा करके, उसके शुभवचनों, शुभाशीष से जो आनंद प्राप्त किया जा सकता है वह अवर्णनीय है
से लेकर पशु एवं पक्षियों तक को आत्मनिर्भर, स्वावलंबी एवं कुशल बनाने के लिए उनकी माँ उन्हें स्वयं से अलग तो करती है परंतु उनकी सुरक्षा के प्रति हमेशा सचेत रहकर अपने ममत्व को बनाए रखती है। परंतु ठीक इसके विपरीत कई बार मानव स्वयं अपने बढ़ते बुद्धि विकास के कारण अपनी सुरक्षा एवं आवश्यकता के प्रति स्वार्थी होकर माँ और उसकी ममता के प्रति उदासीन हो जाता है। फिर वह अपनी पूर्ति के लिए जननी और जन्मभूमि दोनों का दोहन तो करता है परंतु उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना भूल जाता है। जो व्यक्ति अपने इन कर्तव्यों का पालन करता है वो स्नेह, ममत्व की छाँव में रहकर सद्गुण, संस्कार, नम्रता को प्राप्त करता है। वह अपने जीवन में समस्त सुखों और जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर ऊँचाइयों को पा लेता है। वहीं ऐसे व्यक्ति जो अपने कर्तव्यों के निर्वहन में मातृशक्ति को, उसके स्नेह, ममत्व को उपेक्षित कर उन्नति का मार्ग ढूँढने का प्रयास करते हैं, वे जीवन भर निराशा के अलावा कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते। माँ अनंत शक्तियों की धारणी होती है। इसीलिए उसे ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप मानकर ईश्वर के सदृश्य माना गया है। माँ के समीप रहकर उसकी सेवा करके, उसके शुभवचनों, शुभाशीष से जो आनंद प्राप्त किया जा सकता है वह अवर्णनीय है। अपने दिए स्नेह के सागर के बदले माँ बच्चों से कुछ नहीं चाहती। वह हर हाल में केवल बच्चों का हित सोचती है, खुद को मिटाकर भी। इसलिए अपनी ओर से हम उसे कभी दुःख न दें, यही हमारा कर्तव्य होना चाहिए।
Sunday, March 30, 2008
माँ-बाप की आँखों में आंसू...
माँ को अपने बेटे का इंतजार..
प्रशांतभाई
मुनि तरुण सागर जी
Thursday, March 20, 2008
Dr. Srimati Tara Singh
बेटी होने का सुख या दुख - अनु सपन की एक गज़ल
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेतीयाँ
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
माँ संवेदना है - ओम व्यास जी की कविता
माँ संवेदना है तो पिता क्या है?
पिता…पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है,
पिता…पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ती है,
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिती की भक्ती है,
पिता…पिता एक जीवन को जीवन का दान है,
पिता…पिता दुनिया दिखाने का एहसान है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,तो
क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नहीं सकता,
विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,
विश्व में किसी भी तिर्थ की यात्रा व्यर्थ हैं,
वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते
पापा कहीं मुझे मार तो नहीं देंगे?
इतने सारे सवाल करती है,
और माँ केवल अंतिम सवाल का ही उत्तर दे पाती है,
अब माँ के दूध का भी होगा कारोबार
माँ का दूध शिशु के लिए अनमोल होता है
अमरीका की एक कंपनी अब माँ के दूध का कारोबार करने के लिए क़दम बढ़ा रही है जिससे अस्पतालों में उन बच्चों का इलाज किया जा सकेगा जिनकी माताएँ अपने शिशुओं को अपना दूध नहीं पिला सकतीं.
प्रोलैक्टा बायोसाइंसेज़ नाम की यह छोटी सी कंपनी लॉस एंजल्स के बाहरी इलाक़े में स्थित है. यह कंपनी माँ के दूध पर आधारित इलाज को विकसित करने के लिए शोध भी करना चाहती है.
माँ के दूध को शिशु के लिए अमृत समान माना जाता है यानी उसमें खनिज, पाचक तत्व और एंटीबोडीज़ सहित वे सभी तत्व मौजूद होते हैं जो शिशु के जीवन के लिए अनमोल होते हैं.
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि कंपनी के इस फ़ैसले से बहुत सी माताओं पर अपना दूध बेचने के लिए दबाव बढ़ेगा.
अभी तक अमरीका और ब्रिटेन में कुछ गिने-चुने ऐसे दूध बैंक हैं जो स्थानीय स्तर पर माँ का दूध इकट्ठा करते हैं और उन बच्चों के लिए आपूर्ति करते हैं जिनका जन्म समय से पहले होता है और उनकी माँ को अपना दूध पिलाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.
लेकिन प्रोलैक्टा कंपनी की योजना है कि वह माँ के दूध के बैंकों और अस्पतालों से दूध ख़रीदकर उसे पॉश्चॉराइज़ करने के बाद अस्पतालों को वापस बेचेगी.
कंपनी माँ के दूध को उन बच्चों के लिए भी आपूर्ति करने की योजना बना रही है जिन्हें दिल की बीमारियाँ होती हैं, जिनका ऑपरेशन किया जाता है और जिन्हें संक्रमण का ख़तरा होता है.
कंपनी माँ के दूध में मौजूद तत्वों के बारे में शोध भी करना चाहती है ताकि नवजात शिशुओं में आम बीमारियों का इलाज माँ के दूध से किया जा सके.
अलग-अलग राय
प्रोलैक्टा की मुख्य कार्यकारी अधिकारी एलेना मीडो का कहना था, "जहाँ तक मेरी जानकारी है यह दुनिया भर में इस तरह की पहली और एक मात्र सेवा होगी."
अदभुत नुस्ख़ा
माँ का दूध एक अदभुत नुस्ख़ा है. क्यों ना हम ऐसी सुविधा क़ायम करें जहाँ बीमारी से लड़ने वाले इसमें मौजूद तत्वों को सहेजा जा सके.
प्रोलैक्टा कंपनी की प्रमुख
मीडो का कहना था, "माँ का दूध एक अदभुत नुस्ख़ा है. क्यों ना हम ऐसी सुविधा क़ायम करें जहाँ बीमारी से लड़ने वाले इसमें मौजूद तत्वों को सहेजा जा सके."
लेकिन उत्तरी अमरीका में मानव दूध बैंकिंग एसोसिएशन ने माँ के दूध की "ख़रीद-फ़रोख़्त" पर सवाल उठाए हैं.
एसोसिएशन का कहना है कि माँ के दूध के साथ व्यावसायिक पहलू जुड़ने के साथ माताओं पर अपना दूध बेचने के लिए दबाव बढ़ेगा और वे शायद इस बात की अनदेखी करने लगें कि उनके अपने बच्चों को इस दूध की ज़रूरत होती है.
ब्रिटेन के नेशनल चाइल्डबर्थ ट्रस्ट की रोज़ी डोड्स का कहना है कि वह इन चिंताओं को समझती हैं.
लेकिन उन्होंने कहा, "ज़रूरत इस बात की है कि और ज़्यादा माताएँ अपना दूध उपलब्ध कराने के लिए आगे आएँ. इस पूरे मुद्दे को और ज़्यादा अहमियत दिए जाने की ज़रूरत है. मैं सिक्के के दोनों पहलू देख सकती हूँ."
उनका कहना था, "हालाँकि मैं नहीं समझती कि यह योजना ब्रिटेन में कामयाब होगी क्योंकि यह अस्पतालों के लिए बहुत ख़र्चे वाली साबित होगी."
बूढे माँ-बाप : कर्ज या फर्ज
उदास चेहरे की झुर्रियों को बरसती आँखे सुना रही है अपने सपने को सच करने ज़िगर का टुकडा शहर गया हैं.जी हाँ,यह त्रासदी हैं उन बूढे माता-पिताओं की जो बडे अरमानों से अपने जिगर के टुकडों को शहरों में पढने के लिये शहर तो भेज देते हैं उनके सपनों को पूरा करने के लिये,लेकिन बाद में यही बेटे पूरी तरह से माता-पिता के द्वारा किये गये बलिदानों को भूल जाते हैं और उनकी कोई खैर खबर नहीं लेते हैं.शहरी चमक-दमक और बंगले और कार के बीच अपने माता-पिता द्वारा दिये गये संस्कारों को भूल जाते हैं.उनके हाल पर उनको छोड देते हैं.भारतीय परिप्रेक्ष्य में ओल्ड एज होम की कल्पना करना आज से कुछ दिन पहले तक संभव नही था.लेकिन बदलती परिस्थितियों में इनकी संख्या में बढोत्तरी अपने सामाजिक स्थिति की बदहाल तस्वीर को हमारे सामने रखती हैं.जिंदगी भर हमारे लिये अपना सर्वस्व न्योछवर करने वाले अभिभावकों को उनके जीवन काल की संध्या में हम आश्रय न दे सके यह कितनी शर्म की बात हैं.एकल परिवार की अवधारणा को शहरी संस्कृति में ज्यादा तवज्जों दी जाती है,जिस कारण बच्चों को दादा-दादी या संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों का प्यार नही मिल पाता हैं.वे रिश्तों को ना जानते हैं ना ही उतनी अहमियत देते हैं.आने वाले समय में वे भी माता-पिता के साथ वही व्यवहार करने से नही चूकते,जो उनके माता-पिता अपने माता-पिता के साथ किये होते हैं.भारत सरकार भी संसद में ऐसा कानून लाने की सोच रही हैं,जिससे बूढे माँ-बाप अपने गुजारे के लिये अपना हक माँग सकते हैं.जब कानून के तहत वसीयत पर बेटे अपना हिस्सा माँग सकते है तो कानूनन ही सही अब बूढे माँ-बाप अपने गुजारे के लिये हक से अपने बेटों से पैसा तो माँग ही सकते हैं.लेकिन ऐसी स्थिति आना कितनी शर्म की बात हैं,जीते-जी कोई माँ-बाप के सामने ऐसी स्थिति आती हैं तो यह तो उनके मरने के समान हैं.बेटों का फर्ज बनता है कि वे अपने बूढे मां-बाप की सेवा तन मन से करे.भारतीय संस्कृति में ऐसी स्थिति का आना निश्चय ही शर्म की बात हैं.अपने सपनों को साकार करने के चक्कर में अपने जडों को भूल जाये,ये कहाँ की होशियारी हैं.हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हमें भी बूढापे से गुजरना हैं,अगर कल वही स्थिति का सामना करना पडे तो यह भी बडी शर्म की बात होगी.
प्रस्तुतकर्ता : नितेश कुमार गोयनका पर
Friday, February 22, 2008
माँ भावना की मूर्ति है !
जब से गई है माँ मेरी रोया नहीं
जब से गई है माँ मेरी रोया नहीं कवि कुलवंत सिंह
जब से गई है माँ मेरी रोया नहींबोझिल हैं पलकें फिर भी मैं सोया नहींऐसा नहीं आँखे मेरी नम हुई न होंआँचल नहीं था पास फिर रोया नहींसाया उठा अपनों का मेरे सर से जबसपनों की दुनिया में कभी खोया नहींचाहत है दुनिया में सभी कुछ पाने कीपायेगा तूँ वह कैसे जो बोया नहींइंसा है रखता साफ तन हर दिन नहाबीतें हैं बरसों मन कभी धोया नहीं
जन्म दे मुझे भी माँ
जन्म दे मुझे भी माँ : गुरवरन सिंह
जन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,मुझे अपनी कोख में न मारतेरे दर्शन करना चाहती हूँ माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,लड़की हूँ तो क्या हुआ माँ, ख्याल मैं भी तेरा रखूँगीपढ़-लिखकर मैं भी माँ, तेरा नाम चमकाऊँगीअगर तू कहे तो मैं तेरा राज-दुलारा बनकर दिखाऊँगीतेरी कोख में कर रही हूँ इंतज़ार माँ, इस संसार में मुझे भी ले आजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,लोग लड़कों के जन्म पर खुश होते हैं,तू मुझ लड़की को जन्म देकर खुशी मनासंसार को तू आज बता दे माँ कि –मैं हूँ लड़कों से बढ़कर तेरी लड़की माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,तेरी गोद में सोना चाहती हूँ, तेरी लोरियाँ सुनना चाहती हूँ माँप्यार की अनमोल परिभाषा मैं तुझ से सीखना चाहती हूँ माँदुनिया में मुझे माँ तू ही ला सकती हैमेरा तो भगवान है तू माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,तेरे जो सपने हैं, उनको मैं पूरा करूँगी माँ,जो तू कहे वो मैं करूँगी माँ,न मैं माँगूगी महँगे कपड़े,न माँगूगी कुछ औरमाँगूगी तो बहुत सारा तेरा प्यार, माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ,मेरी शादी के खर्च से परेशान न हो माँ,मैं खूब मेहनत करूँगी और पैसा कमाऊँगीतुझ पर कभी बोझ नहीं बनूँगी माँ, दहेज की फिक्र न कर, मैं हूँ न तेरी बेटी माँक्योंकि लड़की है आज लड़कों के बराबर माँजन्म दे मुझे भी माँ, जन्म दे मुझे भी माँ
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माँ की वंदना
मानस मंथन – एक मार्मिक अभिव्यक्तिसमीक्षक : कपिल अनिरुद्धरचयिता : शशि पाधा
धरती माँ की वन्दना, राष्ट्र प्रेम एवं भारतीयता को ले कर बहुत ही उत्कृष्ट रचनायें की गई हैं परन्तु अपनी धरा से प्रेम करने वाला, राष्ट्र गौरव से ओत-प्रोत व्यक्ति यदि अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि से दूर हो प्रवासी कहलाने को विवश हो जाता है तो उस के भीतर का दर्द, माँ भारती से बिछुड़ने की पीड़ा कैसे अभिव्यक्ति पाती है, बहुत कम देखने को मिला है। श्रीमती शशि पाधा जी की कविता ’प्रवासी’ इसी भाव को अभिव्यक्त करती है। वे लिखती हैं –
“मैं प्रवासी हुई सखिहै देस मेरा अति दूरयहाँ न मिलती पीपल छैयान
वैसा ही दर्द उनकी कविता ’स्मृतियाँ’ एवं ’माँ का आँगन’ में भी दिखाई देता है। फिर संवेदनशील होना ही तो कवि हृदय का पहला लक्षण है। बतौर सुमित्रानन्दन पंत –
“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान”
१३१ पन्नों के अपने इस काव्य संग्रह को कवयित्री ने ’भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं हिन्दी भाषा की समृद्धि में संलग्न प्रावासी भारतीयों’ को समर्पित किया है। पुस्तक का नाम पुस्तक का नाम मानस मंथन प्रतीकात्मक है । पुराणों के अनुसार जब सागर मंथन हुआ था तो मंद्राचल पर्वत की मथनी तथा शेषनाग की रस्सी द्वारा ही देवताओं एवं दानवों ने सागर को मथा था। एक रचनाकार जब अपनी चेतना की मथनी ले अपने अन्तरमन को जिज्ञासा की रस्सियों द्वारा मथता है तो उसे जिन अमूल्य बिम्बों, प्रतीकों, संकेतों इत्यादि की प्राप्ति होती है उसे वह दूसरों को सौंपता जाता है। स्वयं विष पी दूसरों को अमृतपान करवाने वाला रचनाकार ही तो शिव कहलाता है। मानस मंथन भी कवयित्री शशि पाधा जी के अन्तरमन में हुए मंथन से प्राप्त रचनाओं का अमृतपान हमें करवाता है। कवयित्री स्वयं लिखती है – “जीवन के राग-विराग, हर्ष-शोक एवं मानवीय रिश्तों की उहा-पोह ने सदैव मेरे संवेदनशील हृदय में अनगिन प्रश्नों का जाल बुना है। मेरा जिज्ञासु मन इस चराचर जगत में उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढता रहता है। जीवन मीमाँसा की इस भावना से प्रेरित हो ’मानस मंथन’ का बीज अंकुरित हुआ।“
मानस मंथन के कैनवास पर रचनाकार ने शब्दों की तूलिका से जीवन के अनेकानेक रंगों को उभारा है। कहीं वह जीवन को पूर्णता से जीने का मूलमंत्र देती नज़र आती है तो कहीं भ्रूण हत्या पर अपना आक्रोश व्यक्त करती है। कहीं वह प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण करती है तो किसी अन्य रचना में त्याग एवं बलिदान का रंग बिखेरती दिखाई देती है। इन सभी रंगों में से जो रंग सबसे अधिक उभरा हुआ नज़र आता है वह अपने देश की धरती, देश प्रेम का रंग है।
ललित निबन्ध लोभ और प्रीति में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं –
“जन्म भूमि का प्रेम, स्वदेश प्रेम यदि वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो स्थान के लोभ के अतिरिक्त ऒर कुछ नहीं है। इस लोभ के लक्षणों से शून्य देशप्रेम कोरी बकवाद या फैशन के लिये गढ़ा हुआ शब्द है। यदि किसी को अपने देश से प्रेम होगा तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु-पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा। सबको वह चाह भरी दृष्टि से देखेगा। सबको सुध कर के वह विदेश में आँसू बहायेगा।“आचर्य शुक्ल जी का यह कथन कवयित्री शशि पाधा पर पूरा उतरता है। वह तो अपने वतन की गलियाँ, कलियाँ, मोर, चकोर, गंगा-यमुना, फाल्गुन – होली यह सब देखने को तड़प उठती है। और फिर देश प्रेम की यह भाव धारा अश्रुधारा का रूप ले लेती है।उनकी कविता ’प्रवासी वेदना’ तथा ’कैसे भेजूँ पाती’ को पढ़ कर महाकवि कालिदास के मेघदूत की याद ताज़ा हो जाती है। जिस में यक्ष बादलों को अपना प्रेम दूत बना अपनी प्रियतमा को संदेशा देने को कहता है। कवयित्री उड़ती आई इक बदली से अपने घर का हाल-चाल पूछती है। इस कविता की यह पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी हैं।
“उड़ते-उड़ते क्या तू बदलीगंगा मैय्या से मिल आईदेव नदी का पावन जल क्याअपने आँचल में भर लाईमन्दिर की घंटी की गूँजेंकानों में रस भरती होंगीचरणामृत की पावन बूंदेंतन मन शीतल करती होंगी”
किसी भी कवि अथवा कवयित्री की कविताओं को छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रतीकवाद इत्यादि वर्गों में वर्गीकृत करना, उसके साथ अन्याय करना है। वास्तव में जब हम अपना आलोचना धर्म ठीक ढंग से नहीं निभा पाते हैं तो हम मात्र उन्हें विभिन्न वादों-प्रतिवादों में वर्गीकृत कर के ही अपनी विद्धुता का परिचय दे देना चाहते हैं। यह सत्य है कि शशि पाधा जी की कुछ कविताओं को पढ़ बरबस महादेवी वर्मा जी की याद ताज़ा हो जाती है परन्तु कवयित्री की प्रत्येक अनुभूति उसकी निजि है। उसने अपने लिखे प्रत्येक शब्द को स्वयं अनुभूत किया है। मानस मंथन का अक्षर-अक्षर उस ने जिया है। यही उन की सबसे बड़ी विशेषता है।उन की बहुत सी कवितायें उस अज्ञात प्रेमी के लिये हैं जो कभी कवयित्री के मन-वीणा क तार छेड़ उन्हें चैतन्य कर देता है तो कभी अपने स्नेहिल स्पर्श से उन्हें रोमांचित कर देता है। उन की कवितायें अदृष्य, जिज्ञासा एवं पथिक अपने उसी अज्ञात प्रेमी को समर्पित हैं।
अपने समय के बहुत से रचनाकारों, चिन्तकों एवं सन्त जनों ने प्रेम क्या है हमें बतलाया है। अपनी कविता ’प्रेम’ में कवयित्री भी प्रेम को परिभाषित करती हुई कहती है –
-नयन में जले दीप साअक्षर में पले गीत साचातकी की प्रीत साश्वास में संगीत सासजे जो वही प्रेम है।
ऊपरी तौर पर पढ़ने वाले किसी पाठक को यह भी भ्रम हो सकता है कि शशि जी अपने निजि सुखों एवं दुखों को शब्दबद्ध कर रही हैं। परन्तु ऐसा कहीं नहीं है। वह तो सबके सुख में अपना सुख देखती है। सबक दुख ही उसका दुख है। वह तो वसुन्धरा को रक्तरंजित होते देख अनायास ही कह उठती है –
“किस दृढ़ता से लाँघी तूने।संस्कारों की अग्नि रेखा।
’अजन्मा शैशव’ कविता में वह हमारे सामाजिक कलंक ’भ्रूण हत्या’ की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं। अजन्मा शिशु ही अपनी हत्या के लिये माँ से प्रश्न कर हमारी चेतना को झंझोड़ता है।
कवयित्री ने छोटे-छोटे बिम्बों, प्रतीकों एवं संकेतों के माध्यम से अपनी बात कही है। कहीं वह बादलों का सांकेतिक प्रयोग करती नज़र आती है तो कहीं अन्य कविता ’ताप’ में वह नारी को सुकोमला एवं निर्बला समझने वालों पर सांकेतिक ढंग से प्रहार करती है। जब वह अपने अतीत की स्मृतियों में खोई हुई होती है, जब वह अपने प्रेममय, गौरवमय अतीत को याद करती है तो दुःखों और निराशाओं से ही घिर नहीं जाती, बल्कि उसके भीतर का दार्शनिक उसे अतीत के प्रेम एवं सौहार्द से वर्तमान के क्षणों को प्रेममय एवं आनन्दमय बनाने का संदेश देता है। वह तो अपने अश्रुओं को भी यह कह कर उदात्त बना देती है –
नील गगन भी कभी-कभी।किरणों की लौ खो देता है।
हमारे प्रदेश के प्रख्यात साहित्यकार एवं चिंतक डॉ. ओ.पी. शर्मा ’सारथी’ जी लिखते हैं – “काव्य कला होते हुए प्राण है और प्राण होते हुए कला है। और सबसे बड़ी बात कि जिस समाज में काव्य कला को पूर्ण महत्व दिया जाता है वहाँ पर लय-ताल और संगीत का साम्राज्य रहता है। काय का सारा ढांचा लय-ताल पर आधारित है। यह कभी भी संभव नहीं है और यह संभावना भी नहीं की जा सकती कि व्यक्ति संगीत के तीन गुणों लय-ताल तथा स्वर को समझे बिना काव्यकार हो जाये। यदि उसे काव्यकार होना है तो लयकार और स्वरकार होना ही होगा।“श्रीमती शशि पाधा जी कविताओं में काव्यत्मकता एवं लयात्मकता का उचित तालमेल नज़र आता है। वह तो शब्दलहरियों के साथ स्वरलहरियों को मिलाने की बात करती हुई लिखती हैं –
आओ प्यार का साज़ बजा लें।
देश से हज़ारों मील दूर बसने वाली इस कवयित्री के प्रत्येक शब्द में भारत की मिट्टी, संस्कृति एवं संस्कारों की सुगन्ध आती है। हमारे डुग्गर प्रदेश में जन्मी इस कवयित्री की प्रेरणा इन के पति मेजर जनरल केशव पाधा हैं, जो हमारे गौरव हैं। मेरी कामना है कि हम एक सेनानई की प्ररेणाशक्ति से राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा ले यदि माँ भारती की सेवा में जुट जायें तभी इस प्रेममयी कवयित्री की कविताओं को पढ़ने और सराहने का हमारा ध्येय पूर्ण होगा।
Saturday, February 16, 2008
माँ की किरणों से रोशन था वो
अपने खून-पसिने की कमाई को नि:संकोच सीर्फ अपने बच्चे के किये पानी की तरह बहा दिया और बच्चे की प्रसन्नता को ध्यान में रखते हुए उसके भविष्य का हर हालत और हर कीमत पर ध्यान रखा. बुजुर्गों ने सच ही कहा है :-
“ सोने की सिल गले , आदम का बच्चा पले ! “
परंतु माँ का चरित्र तो और भी सुन्दर और महत्तवपुर्ण है जिसने पूरे नौ मास बच्चे को अपने पेट में रखकर और सख्त से सख्त तकलीफ सहन करके और कई सैकडो परहेज करके जिन्दगी और मौत के मध्य लटककर उसे जन्म दिया , सख्त सर्दी की रातों मेँ बच्चों के पेशाब से तर बिस्तर को बदल-बदलकर स्वयं पेशाब से तर बिस्तर पर सोना और बच्चे को खुश्क बिस्तर पर सुलाना और ढाई तीन वर्ष तक मल-मूत्र से उसको साफ करना क्या महत्त्व नहीं रखता.
वह चेहरा क्या, सूरज था? खुदा था या पैगम्बर था ?
वह चेहरा जिससे बढ्कर खूबसूरत कोई चेहरा हो ही नहीं सकता,
कि वह एक माँ का चेहरा था !
जो अपने दिल के ख्वाबों , प्यार की किरणों से रोशन था !!
` साभार : Gruhsthgeeta, Colkata `
Thursday, February 14, 2008
स्वामी रामसुखदासजी महाराज : हे माँ ...
Wednesday, February 13, 2008
वात्सल्यमयी माँ
न ही उसकी कोई कीमत और न ही कोई हिसाब !!
माँ की ही वह गोद है जहाँ मानवता पले !